Thursday 30 November 2017

विवेकशील बनें

*If the income is not enough then the *expenses should be controlled. If the information is not enough then the words should be controlled.

_“Be Wise.”_

आमदनी पर्याप्त न हो तब ख़र्चों पर नियंत्रण ज़रूरी* है। जानकारी पर्याप्त न हो तब शब्दों पर नियंत्रण रखना* चाहिए॥

“विवेकशील बनें”

Thursday 2 November 2017

प्रेरक कहानी – चार कीमती रत्न

*प्रेरक कहानी – चार कीमती रत्न*

एक वृद्ध संत ने अपनी अंतिम घड़ी नज़दीक देख अपने बच्चों को अपने पास बुलाया और कहा, मैं तुम बच्चों को चार कीमती रत्न दे रहा हूँ, मुझे पूर्ण विश्वास है कि तुम इन्हें सम्भाल कर रखोगे और पूरी ज़िन्दगी इनकी सहायता से अपना जीवन आनंदमय तथा श्रेष्ठ बनाओगे।

1~पहला रत्न है: “माफी”
तुम्हारे लिए कोई कुछ भी कहे, तुम उसकी बात को कभी अपने मन में न बिठाना, और ना ही उसके लिए कभी प्रतिकार की भावना मन में रखना, बल्कि उसे माफ़ कर देना।

2~दूसरा रत्न है: “भूल जाना”
अपने द्वारा दूसरों के प्रति किये गए उपकार को भूल जाना, कभी भी उस किए गए उपकार का प्रतिलाभ मिलने की उम्मीद मन में न रखना।

3~तीसरा रत्न है: “विश्वास”
हमेशा अपनी महेनत और उस परमपिता परमात्मा पर अटूट विश्वास रखना क्योंकि हम कुछ नहीं कर सकते जब तक उस सृष्टि नियंता के विधान में नहीँ लिखा होगा। परमपिता परमात्मा पर रखा गया विश्वास ही तुम्हें जीवन के हर संकट से बचा पाएगा और सफल करेगा।

4~चौथा रत्न है: “वैराग्य”
हमेशा यह याद रखना कि जब हमारा जन्म हुआ है तो निशिचत ही हमें एक दिन मरना ही है। इसलिए किसी के लिए अपने मन में लोभ-मोह न रखना।

मेरे बच्चों जब तक तुम ये चार रत्न अपने पास सम्भालकर रखोगे, तुम खुश और प्रसन्न रहोगे।

Wednesday 1 November 2017

तुलसी विवाह...

देव उठानी एकादशी ~ तुलसी विवाह...
पौराणिक कहानी – क्यों होता है तुलसी ~ शालिग्राम का विवाह...???...

धार्मिक मान्यता के अनुसार देवउठनी एकादशी के दिन भगवान विष्णु नींद से जागते हैं। इसी दिन से शुभ कार्यों की शुरुआत भी होती है। देवउठनी एकादशी से जुड़ी कई परम्परायें हैं।  ऐसी ही एक परंपरा है तुलसी-शालिग्राम विवाह की। शालिग्राम को भगवान विष्णु का ही एक स्वरुप माना जाता है। तुलसी शालिग्राम का विवाह क्यों होता है इसकी शिव पुराण एक कथा है जो इस प्रकार है।

तुलसी~शालिग्राम विवाह कथा...

शिवमहापुराण के अनुसार पुरातन समय में दैत्यों का राजा दंभ था। वह विष्णुभक्त था। बहुत समय तक जब उसके यहां पुत्र नहीं हुआ तो उसने दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य को गुरु बनाकर उनसे श्रीकृष्ण मंत्र प्राप्त किया और पुष्कर में जाकर घोर तप किया। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उसे पुत्र होने का वरदान दिया।

भगवान विष्णु के वरदान स्वरूप दंभ के यहां पुत्र का जन्म हुआ। (वास्तव में वह श्रीकृष्ण के पार्षदों का अग्रणी सुदामा नामक गोप था, जिसे राधाजी ने असुर योनी में जन्म लेने का श्राप दे दिया था) इसका नाम शंखचूड़ रखा गया। जब शंखचूड़ बड़ा हुआ तो उसने पुष्कर में जाकर ब्रह्माजी को प्रसन्न करने के लिए घोर तपस्या की।

शंखचूड़ की तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी प्रकट हुए और वर मांगने के लिए कहा। तब शंखचूड़ ने वरदान मांगा कि ~  मैं देवताओं के लिए अजेय हो जाऊं। ब्रह्माजी ने उसे वरदान दे दिया और कहा कि ~  तुम बदरीवन जाओ। वहां धर्मध्वज की पुत्री तुलसी तपस्या कर रही है, तुम उसके साथ विवाह कर लो।

ब्रह्माजी के कहने पर शंखचूड़ बदरीवन गया। वहां तपस्या कर रही तुलसी को देखकर वह भी आकर्षित हो गया। तब भगवान ब्रह्मा वहां आए और उन्होंने शंखचूड़ को गांधर्व विधि से तुलसी से विवाह करने के लिए कहा। शंखचूड़ ने ऐसा ही किया। इस प्रकार शंखचूड़ व तुलसी सुख पूर्वक विहार करने लगे।  (यह भी पढ़े – भगवान गणेश के श्राप के कारण हुआ था तुलसी का शंखचूड़ से विवाह )

शंखचूड़ बहुत वीर था। उसे वरदान था कि देवता भी उसे हरा नहीं पाएंगे। उसने अपने बल से देवताओं, असुरों, दानवों, राक्षसों, गंधर्वों, नागों, किन्नरों, मनुष्यों तथा त्रिलोकी के सभी प्राणियों पर विजय प्राप्त कर ली। उसके राज्य में सभी सुखी थे। वह सदैव भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन रहता था।

स्वर्ग के हाथ से निकल जाने पर देवता ब्रह्माजी के पास गए और ब्रह्माजी उन्हें लेकर भगवान विष्णु के पास गए। देवताओं की बात सुनकर भगवान विष्णु ने बोला कि शंखचूड़ की मृत्यु भगवान शिव के त्रिशूल से निर्धारित है। यह जानकर सभी देवता भगवान शिव के पास आए।

देवताओं की बात सुनकर भगवान शिव ने चित्ररथ नामक गण को अपना दूत बनाकर शंखचूड़ के पास भेजा। चित्ररथ ने शंखचूड़ को समझाया कि वह देवताओं को उनका राज्य लौटा दे, लेकिन शंखचूड़ ने कहा कि महादेव के साथ युद्ध किए बिना मैं देवताओं को राज्य नहीं लौटाऊंगा।

भगवान शिव को जब यह बात पता चली तो वे युद्ध के लिए अपनी सेना लेकर निकल पड़े। शंखचूड़ भी युद्ध के लिए तैयार होकर रणभूमि में आ गया। देखते ही देखते देवता व दानवों में घमासान युद्ध होने लगा। वरदान के कारण शंखचूड़ को देवता हरा नहीं पा रहे थे।

शंखचूड़ और देवताओं का युद्ध सैकड़ों सालों तक चलता रहा। अंत में भगवान शिव ने शंखचूड़ का वध करने के लिए जैसे ही अपना त्रिशूल उठाया, तभी आकाशवाणी हुई कि ~ जब तक शंखचूड़ के हाथ में श्रीहरि का कवच है और इसकी पत्नी का सतीत्व अखंडित है, तब तक इसका वध संभव नहीं होगा।

आकाशवाणी सुनकर भगवान विष्णु वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण कर शंखचूड़ के पास गए और उससे श्रीहरि कवच दान में मांग लिया। शंखचूड़ ने वह कवच बिना किसी संकोच के दान कर दिया। इसके बाद भगवान विष्णु शंखचूड़ का रूप बनाकर तुलसी के पास गए।

वहां जाकर शंखचूड़ रूपी भगवान विष्णु ने तुलसी के महल के द्वार पर जाकर अपनी विजय होने की सूचना दी। यह सुनकर तुलसी बहुत प्रसन्न हुई और पति रूप में आए भगवान का पूजन किया व रमण किया। तुलसी का सतीत्व भंग होते ही भगवान शिव ने युद्ध में अपने त्रिशूल से शंखचूड़ का वध कर दिया।

कुछ समय बाद तुलसी को ज्ञात हुआ कि यह मेरे स्वामी नहीं है, तब भगवान अपने मूल स्वरूप में आ गए। अपने साथ छल हुआ जानकर शंखचूड़ की पत्नी रोने लगी। उसने कहा ~  आज आपने छलपूर्वक मेरा धर्म नष्ट किया है और मेरे स्वामी को मार डाला। आप अवश्य ही पाषाण ह्रदय हैं, अत: आप मेरे श्राप से अब पाषाण (पत्थर) होकर पृथ्वी पर रहें।

तब भगवान विष्णु ने कहा ~ " देवी, तुम मेरे लिए भारत वर्ष में रहकर बहुत दिनों तक तपस्या कर चुकी हो। अब तुम इस शरीर का त्याग करके दिव्य देह धारणकर मेरे साथ आन्नद से रहो। तुम्हारा यह शरीर नदी रूप में बदलकर गंडकी नामक नदी के रूप में प्रसिद्ध होगा। तुम पुष्पों में श्रेष्ठ तुलसी का वृक्ष बन जाओगी और सदा मेरे साथ रहोगी।"

तुम्हारे श्राप को सत्य करने के लिए मैं पाषाण (शालिग्राम) बनकर रहूँगा। गंडकी नदी के तट पर मेरा वास होगा। नदी में रहने वाले करोड़ों कीड़े अपने तीखे दांतों से काट~काटकर उस पाषाण में मेरे चक्र का चिह्न बनाएंगे। धर्मालुजन तुलसी के पौधे व शालिग्राम शिला का विवाह कर पुण्य अर्जन करेंगे।

नेपाल स्तिथ गण्डकी नदी, केवल इस नदी में ही मिलते है शालिग्राम...

परंपरा अनुसार देवप्रबोधिनी एकादशी के दिन भगवान शालिग्राम व तुलसी का विवाह संपन्न कर मांगलिक कार्यों का प्रारंभ किया जाता है। मान्यता है कि तुलसी ~ शालिग्राम विवाह करवाने से मनुष्य को अतुल्य पुण्य की प्राप्ति होती है।

देव उठानी एकादशी ~ तुलसी विवाह की...
आप एवम आपके समस्त परिजनों को...
बधाई एवम शुभकामनाएं...

                   
*जय द्रारकाधीश ठाकरधणी*

              

शालिग्राम पूजा महात्म्य ।।

।।  शालिग्राम पूजा महात्म्य ।।
   भक्तो की अनेक प्रकार की इच्छाये अपने ठाकुर जी के प्रति होती है, किसी भक्त ने इच्छा की, कि भगवान सगुण साकार बनकर आये तो भगवान राम, कृष्ण का रूप लेकर आ गये. किसी भक्त ने कहा मेरे बेटे के रूप में आये तो भगवान कश्यप अदिति के पुत्र के रूप में आ गए।

किसी भक्त कि इच्छा हुई कि भगवान मेरे सखा बनकर आये, तो वृंदावन में सखा बनकर ग्वाल बाल के साथ खेलने लगे. किसी कि भगवान के साथ लडने की इच्छा हुई तो भगवान ने उसके साथ युद्ध किया. इसी प्रकार किसी भक्त की भगवान को खाने की इच्छा हुई तो भगवान शालिग्रामके रूप में प्रकट हो गए.

जो नेपाल में पहाडो के रूप में होते है वहाँ एक विशेष प्रकार के कीड़े उन पहाडो को खाते है और वह पहाड़ टूट टूटकर टुकडो के रूप में गंडकी नदी में गिरते जाते है. नेपाल में गंडकी नदी के तल में पाए जाने वाले काले रंग के चिकने, अंडाकार पत्थर को शालिग्राम कहते हैं. इसमें एक छिद्र होता है तथा पत्थर के अंदर शंख, चक्र, गदा या पद्म खुदे होते हैं. कुछ पत्थरों पर सफेद रंग की गोल धारियां चक्र के समान होती हैं. इस पत्थर को भगवान विष्णु का रूप माना जाता है तथा इसकी पूजा भगवान शालिग्राम के रूप में की जाती है.

पुराणों में तो यहां तक कहा गया है कि जिस घर में भगवान शालिग्राम हो, वह घर समस्त तीर्थों से भी श्रेष्ठ है. इसके दर्शन व पूजन से समस्त भोगों का सुख मिलता है. भगवान शिव ने भी स्कंदपुराण के कार्तिक माहात्मय में भगवान शालिग्राम की स्तुति की है.

प्रति वर्ष कार्तिक मास की
द्वादशी को महिलाएं प्रतीक
स्वरूप तुलसी और भगवान
शालिग्राम का विवाह कराती हैं.

तुलसी दल से पूजा करता है,ऐसा कहा जाता है कि पुरुषोत्तम मास में एक लाख तुलसी दल से भगवान शालिग्राम की पूजा करने से वह संपूर्ण दान के पुण्य तथा पृथ्वी की प्रदक्षिणा के उत्तम फल का अधिकारी बन जाता है. ऐसा कहा जाता है कि पुरुषोत्तम मास में एक लाख तुलसी दल से भगवान शालिग्राम की पूजा करने से समस्त तीर्थो का फल मिल जाता है मृत्युकाल में इसका जलपान करने वाला समस्त पापों से मुक्त होकर विष्णुलोक चला जाता है.

सदना कसाई का प्रसंग-
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एक सदना नाम का कसाई था,मांस बेचता था पर भगवत भजन में बड़ी निष्ठा थी एक दिन एक नदी के किनारे से जा रहा था रास्ते में एक पत्थर पड़ा मिल गया.उसे अच्छा लगा उसने सोचा बड़ा अच्छा पत्थर है क्यों ना में इसे मांस तौलने के लिए उपयोग करू. उसे उठाकर ले आया.और मांस तौलने में प्रयोग करने लगा.

जब एक किलो तोलता तो भी सही तुल जाता, जब दो किलो तोलता तब भी सही तुल जाता, इस प्रकार चाहे जितना भी तोलता हर भार एक दम सही तुल जाता, अब तो एक ही पत्थर से सभी माप करता और अपने काम को करता जाता और भगवन नाम लेता जाता.

एक दिन की बात है उसी दूकान के सामने से एक ब्राह्मण निकले ब्राह्मण बड़े ज्ञानी विद्वान थे उनकी नजर जब उस पत्थर पर पड़ी तो वे तुरंत उस सदना के पास आये और गुस्से में बोले ये तुम क्या कर रहे हो क्या तुम जानते नहीं जिसे पत्थर समझकर तुम तोलने में प्रयोग कर रहे हो वे शालिग्राम भगवान है इसे मुझे दो जब सदना ने यह सुना तो उसे बड़ा दुःख हुआ और वह बोला हे ब्राह्मण देव मुझे पता नहीं था कि ये भगवान है मुझे क्षमा कर दीजिये.और शालिग्राम भगवान को उसने ब्राह्मण को दे दिया.

ब्राह्मण शालिग्राम शिला को लेकर अपने घर आ गए और गंगा जल से उन्हें नहलाकर, मखमल के बिस्तर पर, सिंहासन पर बैठा दिया, और धूप, दीप,चन्दन से पूजा की. जब रात हुई और वह ब्राह्मण सोया तो सपने में भगवान आये और बोले ब्राह्मण मुझे तुम जहाँ से लाए हो वही छोड आओं मुझे यहाँ अच्छा नहीं लग रहा. इस पर ब्राह्मण बोला भगवान !

वो कसाई तो आपको तुला में रखता था जहाँ दूसरी और मास तोलता था उस अपवित्र जगह में आप थे.

भगवान बोले - ब्रहमण आप नहीं जानते जब सदना मुझे तराजू में तोलता था तो मानो हर पल मुझे अपने हाथो से झूला झूल रहा हो जब वह अपना काम करता था तो हर पल मेरे नाम का उच्चारण करता था.हर पल मेरा भजन करता था जो आनन्द मुझे वहाँ मिलता था वो आनंद यहाँ नहीं.इसलिए आप मुझे वही छोड आये.तब ब्राह्मण तुरंत उस सदना कसाई के पास गया और बोला मुझे माफ कर दीजिए.वास्तव में तो आप ही सच्ची भक्ति करते है.ये अपने भगवान को संभालिए.

सार
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भगवान बाहरी आडम्बर से नहीं भक्त के भाव से रिझते है.उन्हें तो बस भक्त का भाव ही भाता है।
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