Thursday, 2 November 2017

तुलसी विवाह...

देव उठानी एकादशी ~ तुलसी विवाह...
पौराणिक कहानी – क्यों होता है तुलसी ~ शालिग्राम का विवाह...???...

धार्मिक मान्यता के अनुसार देवउठनी एकादशी के दिन भगवान विष्णु नींद से जागते हैं। इसी दिन से शुभ कार्यों की शुरुआत भी होती है। देवउठनी एकादशी से जुड़ी कई परम्परायें हैं।  ऐसी ही एक परंपरा है तुलसी-शालिग्राम विवाह की। शालिग्राम को भगवान विष्णु का ही एक स्वरुप माना जाता है। तुलसी शालिग्राम का विवाह क्यों होता है इसकी शिव पुराण एक कथा है जो इस प्रकार है।

तुलसी~शालिग्राम विवाह कथा...

शिवमहापुराण के अनुसार पुरातन समय में दैत्यों का राजा दंभ था। वह विष्णुभक्त था। बहुत समय तक जब उसके यहां पुत्र नहीं हुआ तो उसने दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य को गुरु बनाकर उनसे श्रीकृष्ण मंत्र प्राप्त किया और पुष्कर में जाकर घोर तप किया। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उसे पुत्र होने का वरदान दिया।

भगवान विष्णु के वरदान स्वरूप दंभ के यहां पुत्र का जन्म हुआ। (वास्तव में वह श्रीकृष्ण के पार्षदों का अग्रणी सुदामा नामक गोप था, जिसे राधाजी ने असुर योनी में जन्म लेने का श्राप दे दिया था) इसका नाम शंखचूड़ रखा गया। जब शंखचूड़ बड़ा हुआ तो उसने पुष्कर में जाकर ब्रह्माजी को प्रसन्न करने के लिए घोर तपस्या की।

शंखचूड़ की तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी प्रकट हुए और वर मांगने के लिए कहा। तब शंखचूड़ ने वरदान मांगा कि ~  मैं देवताओं के लिए अजेय हो जाऊं। ब्रह्माजी ने उसे वरदान दे दिया और कहा कि ~  तुम बदरीवन जाओ। वहां धर्मध्वज की पुत्री तुलसी तपस्या कर रही है, तुम उसके साथ विवाह कर लो।

ब्रह्माजी के कहने पर शंखचूड़ बदरीवन गया। वहां तपस्या कर रही तुलसी को देखकर वह भी आकर्षित हो गया। तब भगवान ब्रह्मा वहां आए और उन्होंने शंखचूड़ को गांधर्व विधि से तुलसी से विवाह करने के लिए कहा। शंखचूड़ ने ऐसा ही किया। इस प्रकार शंखचूड़ व तुलसी सुख पूर्वक विहार करने लगे।  (यह भी पढ़े – भगवान गणेश के श्राप के कारण हुआ था तुलसी का शंखचूड़ से विवाह )

शंखचूड़ बहुत वीर था। उसे वरदान था कि देवता भी उसे हरा नहीं पाएंगे। उसने अपने बल से देवताओं, असुरों, दानवों, राक्षसों, गंधर्वों, नागों, किन्नरों, मनुष्यों तथा त्रिलोकी के सभी प्राणियों पर विजय प्राप्त कर ली। उसके राज्य में सभी सुखी थे। वह सदैव भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन रहता था।

स्वर्ग के हाथ से निकल जाने पर देवता ब्रह्माजी के पास गए और ब्रह्माजी उन्हें लेकर भगवान विष्णु के पास गए। देवताओं की बात सुनकर भगवान विष्णु ने बोला कि शंखचूड़ की मृत्यु भगवान शिव के त्रिशूल से निर्धारित है। यह जानकर सभी देवता भगवान शिव के पास आए।

देवताओं की बात सुनकर भगवान शिव ने चित्ररथ नामक गण को अपना दूत बनाकर शंखचूड़ के पास भेजा। चित्ररथ ने शंखचूड़ को समझाया कि वह देवताओं को उनका राज्य लौटा दे, लेकिन शंखचूड़ ने कहा कि महादेव के साथ युद्ध किए बिना मैं देवताओं को राज्य नहीं लौटाऊंगा।

भगवान शिव को जब यह बात पता चली तो वे युद्ध के लिए अपनी सेना लेकर निकल पड़े। शंखचूड़ भी युद्ध के लिए तैयार होकर रणभूमि में आ गया। देखते ही देखते देवता व दानवों में घमासान युद्ध होने लगा। वरदान के कारण शंखचूड़ को देवता हरा नहीं पा रहे थे।

शंखचूड़ और देवताओं का युद्ध सैकड़ों सालों तक चलता रहा। अंत में भगवान शिव ने शंखचूड़ का वध करने के लिए जैसे ही अपना त्रिशूल उठाया, तभी आकाशवाणी हुई कि ~ जब तक शंखचूड़ के हाथ में श्रीहरि का कवच है और इसकी पत्नी का सतीत्व अखंडित है, तब तक इसका वध संभव नहीं होगा।

आकाशवाणी सुनकर भगवान विष्णु वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण कर शंखचूड़ के पास गए और उससे श्रीहरि कवच दान में मांग लिया। शंखचूड़ ने वह कवच बिना किसी संकोच के दान कर दिया। इसके बाद भगवान विष्णु शंखचूड़ का रूप बनाकर तुलसी के पास गए।

वहां जाकर शंखचूड़ रूपी भगवान विष्णु ने तुलसी के महल के द्वार पर जाकर अपनी विजय होने की सूचना दी। यह सुनकर तुलसी बहुत प्रसन्न हुई और पति रूप में आए भगवान का पूजन किया व रमण किया। तुलसी का सतीत्व भंग होते ही भगवान शिव ने युद्ध में अपने त्रिशूल से शंखचूड़ का वध कर दिया।

कुछ समय बाद तुलसी को ज्ञात हुआ कि यह मेरे स्वामी नहीं है, तब भगवान अपने मूल स्वरूप में आ गए। अपने साथ छल हुआ जानकर शंखचूड़ की पत्नी रोने लगी। उसने कहा ~  आज आपने छलपूर्वक मेरा धर्म नष्ट किया है और मेरे स्वामी को मार डाला। आप अवश्य ही पाषाण ह्रदय हैं, अत: आप मेरे श्राप से अब पाषाण (पत्थर) होकर पृथ्वी पर रहें।

तब भगवान विष्णु ने कहा ~ " देवी, तुम मेरे लिए भारत वर्ष में रहकर बहुत दिनों तक तपस्या कर चुकी हो। अब तुम इस शरीर का त्याग करके दिव्य देह धारणकर मेरे साथ आन्नद से रहो। तुम्हारा यह शरीर नदी रूप में बदलकर गंडकी नामक नदी के रूप में प्रसिद्ध होगा। तुम पुष्पों में श्रेष्ठ तुलसी का वृक्ष बन जाओगी और सदा मेरे साथ रहोगी।"

तुम्हारे श्राप को सत्य करने के लिए मैं पाषाण (शालिग्राम) बनकर रहूँगा। गंडकी नदी के तट पर मेरा वास होगा। नदी में रहने वाले करोड़ों कीड़े अपने तीखे दांतों से काट~काटकर उस पाषाण में मेरे चक्र का चिह्न बनाएंगे। धर्मालुजन तुलसी के पौधे व शालिग्राम शिला का विवाह कर पुण्य अर्जन करेंगे।

नेपाल स्तिथ गण्डकी नदी, केवल इस नदी में ही मिलते है शालिग्राम...

परंपरा अनुसार देवप्रबोधिनी एकादशी के दिन भगवान शालिग्राम व तुलसी का विवाह संपन्न कर मांगलिक कार्यों का प्रारंभ किया जाता है। मान्यता है कि तुलसी ~ शालिग्राम विवाह करवाने से मनुष्य को अतुल्य पुण्य की प्राप्ति होती है।

देव उठानी एकादशी ~ तुलसी विवाह की...
आप एवम आपके समस्त परिजनों को...
बधाई एवम शुभकामनाएं...

                   
*जय द्रारकाधीश ठाकरधणी*

              

शालिग्राम पूजा महात्म्य ।।

।।  शालिग्राम पूजा महात्म्य ।।
   भक्तो की अनेक प्रकार की इच्छाये अपने ठाकुर जी के प्रति होती है, किसी भक्त ने इच्छा की, कि भगवान सगुण साकार बनकर आये तो भगवान राम, कृष्ण का रूप लेकर आ गये. किसी भक्त ने कहा मेरे बेटे के रूप में आये तो भगवान कश्यप अदिति के पुत्र के रूप में आ गए।

किसी भक्त कि इच्छा हुई कि भगवान मेरे सखा बनकर आये, तो वृंदावन में सखा बनकर ग्वाल बाल के साथ खेलने लगे. किसी कि भगवान के साथ लडने की इच्छा हुई तो भगवान ने उसके साथ युद्ध किया. इसी प्रकार किसी भक्त की भगवान को खाने की इच्छा हुई तो भगवान शालिग्रामके रूप में प्रकट हो गए.

जो नेपाल में पहाडो के रूप में होते है वहाँ एक विशेष प्रकार के कीड़े उन पहाडो को खाते है और वह पहाड़ टूट टूटकर टुकडो के रूप में गंडकी नदी में गिरते जाते है. नेपाल में गंडकी नदी के तल में पाए जाने वाले काले रंग के चिकने, अंडाकार पत्थर को शालिग्राम कहते हैं. इसमें एक छिद्र होता है तथा पत्थर के अंदर शंख, चक्र, गदा या पद्म खुदे होते हैं. कुछ पत्थरों पर सफेद रंग की गोल धारियां चक्र के समान होती हैं. इस पत्थर को भगवान विष्णु का रूप माना जाता है तथा इसकी पूजा भगवान शालिग्राम के रूप में की जाती है.

पुराणों में तो यहां तक कहा गया है कि जिस घर में भगवान शालिग्राम हो, वह घर समस्त तीर्थों से भी श्रेष्ठ है. इसके दर्शन व पूजन से समस्त भोगों का सुख मिलता है. भगवान शिव ने भी स्कंदपुराण के कार्तिक माहात्मय में भगवान शालिग्राम की स्तुति की है.

प्रति वर्ष कार्तिक मास की
द्वादशी को महिलाएं प्रतीक
स्वरूप तुलसी और भगवान
शालिग्राम का विवाह कराती हैं.

तुलसी दल से पूजा करता है,ऐसा कहा जाता है कि पुरुषोत्तम मास में एक लाख तुलसी दल से भगवान शालिग्राम की पूजा करने से वह संपूर्ण दान के पुण्य तथा पृथ्वी की प्रदक्षिणा के उत्तम फल का अधिकारी बन जाता है. ऐसा कहा जाता है कि पुरुषोत्तम मास में एक लाख तुलसी दल से भगवान शालिग्राम की पूजा करने से समस्त तीर्थो का फल मिल जाता है मृत्युकाल में इसका जलपान करने वाला समस्त पापों से मुक्त होकर विष्णुलोक चला जाता है.

सदना कसाई का प्रसंग-
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एक सदना नाम का कसाई था,मांस बेचता था पर भगवत भजन में बड़ी निष्ठा थी एक दिन एक नदी के किनारे से जा रहा था रास्ते में एक पत्थर पड़ा मिल गया.उसे अच्छा लगा उसने सोचा बड़ा अच्छा पत्थर है क्यों ना में इसे मांस तौलने के लिए उपयोग करू. उसे उठाकर ले आया.और मांस तौलने में प्रयोग करने लगा.

जब एक किलो तोलता तो भी सही तुल जाता, जब दो किलो तोलता तब भी सही तुल जाता, इस प्रकार चाहे जितना भी तोलता हर भार एक दम सही तुल जाता, अब तो एक ही पत्थर से सभी माप करता और अपने काम को करता जाता और भगवन नाम लेता जाता.

एक दिन की बात है उसी दूकान के सामने से एक ब्राह्मण निकले ब्राह्मण बड़े ज्ञानी विद्वान थे उनकी नजर जब उस पत्थर पर पड़ी तो वे तुरंत उस सदना के पास आये और गुस्से में बोले ये तुम क्या कर रहे हो क्या तुम जानते नहीं जिसे पत्थर समझकर तुम तोलने में प्रयोग कर रहे हो वे शालिग्राम भगवान है इसे मुझे दो जब सदना ने यह सुना तो उसे बड़ा दुःख हुआ और वह बोला हे ब्राह्मण देव मुझे पता नहीं था कि ये भगवान है मुझे क्षमा कर दीजिये.और शालिग्राम भगवान को उसने ब्राह्मण को दे दिया.

ब्राह्मण शालिग्राम शिला को लेकर अपने घर आ गए और गंगा जल से उन्हें नहलाकर, मखमल के बिस्तर पर, सिंहासन पर बैठा दिया, और धूप, दीप,चन्दन से पूजा की. जब रात हुई और वह ब्राह्मण सोया तो सपने में भगवान आये और बोले ब्राह्मण मुझे तुम जहाँ से लाए हो वही छोड आओं मुझे यहाँ अच्छा नहीं लग रहा. इस पर ब्राह्मण बोला भगवान !

वो कसाई तो आपको तुला में रखता था जहाँ दूसरी और मास तोलता था उस अपवित्र जगह में आप थे.

भगवान बोले - ब्रहमण आप नहीं जानते जब सदना मुझे तराजू में तोलता था तो मानो हर पल मुझे अपने हाथो से झूला झूल रहा हो जब वह अपना काम करता था तो हर पल मेरे नाम का उच्चारण करता था.हर पल मेरा भजन करता था जो आनन्द मुझे वहाँ मिलता था वो आनंद यहाँ नहीं.इसलिए आप मुझे वही छोड आये.तब ब्राह्मण तुरंत उस सदना कसाई के पास गया और बोला मुझे माफ कर दीजिए.वास्तव में तो आप ही सच्ची भक्ति करते है.ये अपने भगवान को संभालिए.

सार
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भगवान बाहरी आडम्बर से नहीं भक्त के भाव से रिझते है.उन्हें तो बस भक्त का भाव ही भाता है।
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Tuesday, 31 October 2017

हृदय परिवर्तन 

*  हृदय परिवर्तन  *
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♦ एक राजा को राज भोगते काफी समय हो गया था । बाल भी सफ़ेद होने लगे थे । एक दिन उसने अपने दरबार में उत्सव रखा और अपने गुरुदेव एवं मित्र देश के राजाओं को भी सादर आमन्त्रित किया । उत्सव को रोचक बनाने के लिए राज्य की सुप्रसिद्ध नर्तकी को भी बुलाया गया ।

♦ राजा ने कुछ स्वर्ण मुद्रायें अपने गुरु जी को भी दीं, ताकि नर्तकी के अच्छे गीत व नृत्य पर वे उसे पुरस्कृत कर सकें । सारी रात नृत्य चलता रहा । ब्रह्म मुहूर्त की बेला आयी । नर्तकी ने देखा कि मेरा तबले वाला ऊँघ रहा है, उसको जगाने के लिए नर्तकी ने एक दोहा पढ़ा - *"बहु बीती, थोड़ी रही, पल पल गयी बिताई । एक पलक के कारने, ना कलंक लग जाए ।"*

♦ अब इस दोहे का अलग-अलग व्यक्तियों ने अपने अनुरुप अर्थ निकाला । तबले वाला सतर्क होकर बजाने लगा ।

♦ जब यह बात गुरु जी ने सुनी । गुरु जी ने सारी मोहरें उस नर्तकी के सामने फैंक दीं ।

♦ वही दोहा नर्तकी ने फिर पढ़ा तो राजा की लड़की ने अपना नवलखा हार नर्तकी को भेंट कर दिया ।

♦ उसने फिर वही दोहा दोहराया तो राजा के पुत्र युवराज ने अपना मुकट उतारकर नर्तकी को समर्पित कर दिया ।

♦ नर्तकी फिर वही दोहा दोहराने लगी तो राजा ने कहा - "बस कर, एक दोहे से तुमने वेश्या होकर सबको लूट लिया है ।"

♦ जब यह बात राजा के गुरु ने सुनी तो गुरु के नेत्रों में आँसू आ गए और गुरु जी कहने लगे - "राजा ! इसको तू वेश्या मत कह, ये अब मेरी गुरु बन गयी है । इसने मेरी आँखें खोल दी हैं । यह कह रही है कि मैं सारी उम्र जंगलों में भक्ति करता रहा और आखिरी समय में नर्तकी का मुज़रा देखकर अपनी साधना नष्ट करने यहाँ चला आया हूँ, भाई ! मैं तो चला ।" यह कहकर गुरु जी तो अपना कमण्डल उठाकर जंगल की ओर चल पड़े ।

♦ राजा की लड़की ने कहा - "पिता जी ! मैं जवान हो गयी हूँ । आप आँखें बन्द किए बैठे हैं, मेरी शादी नहीं कर रहे थे और आज रात मैंने आपके महावत के साथ भागकर अपना जीवन बर्बाद कर लेना था । लेकिन इस नर्तकी ने मुझे सुमति दी है कि जल्दबाजी मत कर कभी तो तेरी शादी होगी ही । क्यों अपने पिता को कलंकित करने पर तुली है ?"

♦ युवराज ने कहा - "पिता जी ! आप वृद्ध हो चले हैं, फिर भी मुझे राज नहीं दे रहे थे । मैंने आज रात ही आपके सिपाहियों से मिलकर आपका कत्ल करवा देना था । लेकिन इस नर्तकी ने समझाया कि पगले ! आज नहीं तो कल आखिर राज तो तुम्हें ही मिलना है, क्यों अपने पिता के खून का कलंक अपने सिर पर लेता है । धैर्य रख ।"

♦ जब ये सब बातें राजा ने सुनी तो राजा को भी आत्म ज्ञान हो गया । राजा के मन में वैराग्य आ गया । राजा ने तुरन्त फैंसला लिया - "क्यों न मैं अभी युवराज का राजतिलक कर दूँ ।" फिर क्या था, उसी समय राजा ने युवराज का राजतिलक किया और अपनी पुत्री को कहा - "पुत्री ! दरबार में एक से एक राजकुमार आये हुए हैं । तुम अपनी इच्छा से किसी भी राजकुमार के गले में वरमाला डालकर पति रुप में चुन सकती हो ।" राजकुमारी ने ऐसा ही किया और राजा सब त्याग कर जंगल में गुरु की शरण में चला गया ।

♦ यह सब देखकर नर्तकी ने सोचा - "मेरे एक दोहे से इतने लोग सुधर गए, लेकिन मैं क्यूँ नहीं सुधर पायी ?" उसी समय नर्तकी में भी वैराग्य आ गया । उसने उसी समय निर्णय लिया कि आज से मैं अपना बुरा धंधा बन्द करती हूँ और कहा कि "हे प्रभु ! मेरे पापों से मुझे क्षमा करना । बस, आज से मैं सिर्फ तेरा नाम सुमिरन करुँगी ।"

*समझ आने की बात है, दुनिया बदलते देर नहीं लगती । एक दोहे की दो लाईनों से भी हृदय परिवर्तन हो सकता है । बस, केवल थोड़ा धैर्य रखकर चिन्तन करने की आवश्यकता है ।*

*⛳ प्रशंसा से पिंघलना मत, आलोचना से उबलना मत, नि:स्वार्थ भाव से कर्म करते रहो, क्योंकि इस धरा का, इस धरा पर, सब धरा रह जाएगा⛳*

सामना

*महाभारत में कर्ण ने श्री कृष्ण से पूछा "मेरी माँ ने मुझे जन्मते ही त्याग दिया, क्या ये मेरा अपराध था कि मेरा जन्म एक अवैध बच्चे के रूप में हुआ*

दोर्णाचार्य ने मुझे शिक्षा देने से मना कर दिया क्योंकि वो मुझे क्षत्रीय नही मानते थे, क्या ये मेरा कसूर था

परशुराम जी ने मुझे शिक्षा दी साथ ये शाप भी दिया कि मैं अपनी विद्या भूल जाऊंगा क्योंकि वो मुझे क्षत्रीय समझते थे

भूलवश एक गौ मेरे तीर के रास्ते मे आकर मर गयी और मुझे गौ वध का शाप मिला

द्रौपदी के स्वयंवर में मुझे अपमानित किया गया, क्योंकि मुझे किसी राजघराने का कुलीन व्यक्ति नही समझा गया

यहां तक कि मेरी माता कुंती ने भी मुझे अपना पुत्र होने का सच अपने दूसरे पुत्रों की रक्षा के लिए स्वीकारा

मुझे जो कुछ मिला दुर्योधन की दया स्वरूप मिला

*तो क्या ये गलत है कि मैं दुर्योधन के प्रति अपनी वफादारी रखता हूँ..*

*श्री कृष्ण मंद मंद मुस्कुराते हुए बोले-*
"कर्ण, मेरा जन्म जेल में हुआ था मेरे पैदा होने से पहले मेरी मृत्यु मेरा इंतज़ार कर रही थी जिस रात मेरा जन्म हुआ उसी रात मुझे मेरे माता-पिता से अलग होना पड़ा तुम्हारा बचपन रथों की धमक, घोड़ों की हिनहिनाहट और तीर कमानों के साये में गुज़रा
मैने गायों को चराया और गोबर को उठाया
जब मैं चल भी नही पाता था तो मेरे ऊपर प्राणघातक हमले हुए
कोई सेना नही, कोई शिक्षा नही, कोई गुरुकुल नही, कोई महल नही, मेरे मामा ने मुझे अपना सब से बड़ा शत्रु समझा
जब तुम सब अपनी वीरता के लिए अपने गुरु व समाज से प्रशंसा पाते थे उस समय मेरे पास शिक्षा भी नही थी बड़े होने पर मुझे ऋषि सांदीपनि के आश्रम में जाने का अवसर मिला

तुम्हे अपनी पसंद की लड़की से विवाह का अवसर मिला मुझे तो वो भी नही मिली जो मेरी आत्मा में बसती थी
मुझे बहुत से विवाह राजनैतिक कारणों से या उन स्त्रियों से करने पड़े जिन्हें मैंने राक्षसों से छुड़ाया था
जरासंध के प्रकोप के कारण मुझे अपने परिवार को यमुना से ले जाकर सुदूर प्रान्त मे समुद्र के किनारे बसाना पड़ा दुनिया ने मुझे कायर कहा

यदि दुर्योधन युद्ध जीत जाता तो विजय का श्रेय तुम्हे भी मिलता, लेकिन धर्मराज के युद्ध जीतने का श्रेय अर्जुन को मिला मुझे कौरवों ने अपनी हार का उत्तरदायी समझ

*हे कर्ण* किसी का भी जीवन चुनोतियों से रहित नही है सब के जीवन मे सब कुछ ठीक नही होता कुछ कमियां अगर दुर्योधन में थी तो कुछ युधिष्टर में भी थीं
सत्य क्या है और उचित क्या है? ये हम अपनी आत्मा की आवाज़ से स्वयं निर्धारित करते हैं

इस बात से *कोई फर्क नही पड़ता* कितनी बार हमारे साथ अन्याय होता है,

इस बात से *कोई फर्क नही पड़ता* कितनी बार हमारा अपमान होता है,

इस बात से *कोई फर्क नही पड़ता* कितनी बार हमारे अधिकारों का हनन होता है

*फ़र्क़ सिर्फ इस बात से पड़ता है कि हम उन सबका सामना किस प्रकार करते हैं..*

देवउठनी ग्यारस की कथा:-

देवउठनी ग्यारस की कथा:-प्रवाचक: विष्णु नागर

एक राजा था। उसके राज्य में प्रजा सुखी थी। एकादशी को कोई भी अन्न नहीं बेचता था। सभी फलाहार करते थे। एक बार भगवान ने राजा की परीक्षा लेनी चाही। भगवान ने एक सुंदरी का रूप धारण किया तथा सड़क पर बैठ गए। तभी राजा उधर से निकला और सुंदरी को देख चकित रह गया। उसने पूछा- हे सुंदरी! तुम कौन हो और इस तरह यहां क्यों बैठी हो?
तब सुंदर स्त्री बने भगवान बोले- मैं निराश्रिता हूं। नगर में मेरा कोई जाना-पहचाना नहीं है, किससे सहायता मांगू? राजा उसके रूप पर मोहित हो गया था। वह बोला- तुम मेरे महल में चलकर मेरी रानी बनकर रहो।
सुंदरी बोली- मैं तुम्हारी बात मानूंगी, पर तुम्हें राज्य का अधिकार मुझे सौंपना होगा। राज्य पर मेरा पूर्ण अधिकार होगा। मैं जो भी बनाऊंगी, तुम्हें खाना होगा।
राजा उसके रूप पर मोहित था, अतः उसने उसकी सभी शर्तें स्वीकार कर लीं। अगले दिन एकादशी थी। रानी ने हुक्म दिया कि बाजारों में अन्य दिनों की तरह अन्न बेचा जाए। उसने घर में मांस-मछली आदि पकवाए तथा परोसकर राजा से खाने के लिए कहा। यह देखकर राजा बोला-रानी! आज एकादशी है। मैं तो केवल फलाहार ही करूंगा। 
तब रानी ने शर्त की याद दिलाई और बोली- या तो खाना खाओ, नहीं तो मैं बड़े राजकुमार का सिर काट लूंगी। राजा ने अपनी स्थिति बड़ी रानी से कही तो बड़ी रानी बोली- महाराज! धर्म न छोड़ें, बड़े राजकुमार का सिर दे दें। पुत्र तो फिर मिल जाएगा, पर धर्म नहीं मिलेगा।
इसी दौरान बड़ा राजकुमार खेलकर आ गया। मां की आंखों में आंसू देखकर वह रोने का कारण पूछने लगा तो मां ने उसे सारी वस्तुस्थिति बता दी। तब वह बोला- मैं सिर देने के लिए तैयार हूं। पिताजी के धर्म की रक्षा होगी, जरूर होगी।
राजा दुःखी मन से राजकुमार का सिर देने को तैयार हुआ तो रानी के रूप से भगवान विष्णु ने प्रकट होकर असली बात बताई- राजन! तुम इस कठिन परीक्षा में पास हुए। 
भगवान ने प्रसन्न मन से राजा से वर मांगने को कहा तो राजा बोला- आपका दिया सब कुछ है। हमारा उद्धार करें। उसी समय वहां एक विमान उतरा। राजा ने अपना राज्य पुत्र को सौंप दिया और विमान में बैठकर परम धाम को चला गया ।
देवउठनी एकादशी की एक अन्य कथा शंखासुर नामक राक्षस की है। शंखासुर ने तीनों लोकों में बहुत ही उत्पात मचाया हुआ था। तब सभी देवताओं के आग्रह करने पर भगवान  विष्णु ने उस राक्षस से युद्ध किया और यह युद्ध कई वर्षों तक चला। 
युद्ध में वह असुर मारा गया और इसके बाद भगवान विष्णु विश्राम करने चले गए। कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन भगवान विष्णु की निद्रा टूटी थी और सभी देवताओं ने भगवान  विष्णु की पूजा की थी।
आपको देवउठनी एकादशी(छोटी दिपावली)की ढेरो शुभकामनायें ।।
शुभ प्रभातम् सा!

Tuesday, 12 September 2017

मांगी हुई खुशियों से

*मांगी हुई खुशियों से, किसका भला होता है,*
*किस्मत में जो लिखा होता है, उतना ही अदा होता है,*

*न डर रे मन दुनिया से,*

*यहाँ किसी के चाहने से, न हीं किसी का बुरा होता है,*
*मिलता है वही, जो हमने बोया होता है,*
*कर पुकार उस प्रभु के आगे,क्योंकि,  सब कुछ उसी के बस में होता है*

तुमको मिल्यो बरसाने का वास

बरसाने मे एक सेठ रहते थे।
उनके तीन चार दुकानें थी।
अच्छी तरह चलती थी। तीन बेटे तीन बहुएं थी, सब आज्ञाकारी। पर सेठ के मन मे एक इच्छा थी। उनके बेटी नहीं थी। संतो के दर्शन से चिन्ता कम हुई। संत बोले *मन में अभाव हो, उस पर भगवान का भाव स्थापित कर लो।*

सुनो सेठ !
तुमको मिल्यो बरसाने का वास

*यदि मानो नाते राधे सुता,*
                *काहे रहत उदास।*

सेठजी ने राधा रानी का एक चित्र मंगवाया और अपने कमरे में लगाकर पुत्री भाव से रहते। रोज सुबह राधे राधे कहते, भोग लगाते और दुकान से लौटकर राधे राधे  कहकर सोते।

तीन बहु बेटे हैं घर में,
             सुख सुविधा है पूरी।
संपति भरि भवन रहती,
             नहीं कोई मजबूरी॥

कृष्ण कृपासे जीवनपथ पे,
             आती न कोई बाधा।
मैं बहुत बड़भागी पिता हुं,
             मेरी बेटी है राधा॥

एक दिन एक मनिहारी चूड़ी पहनाने सेठ के दरवाजे के पास आ गयी। चूड़ी पहनाने की गुहार लगाई। तीनो बहुऐं बारी बारी से चूड़ी पहन कर चली गयी। फिर एक हाथ और बढ़ा तो मनिहारीन सोची कि कोई रिश्तेदार  आया होगा उसने चूड़ी पहनायी और चली गयी।
   
सेठ की दुकान पर पहुँच कर पैसे मांगे और कहा कि  इस बार पैसे पहले से ज्यादा चाहिए। सेठजी बोले कि क्या चूड़ी मंहगी हो गयी है। तो मनिहारीन  बोली - नहीं सेठजी ! आज मैं चार लोगो को चूड़ी पहना कर आ रही हूं। सेठजी ने कहा कि तीन बहुओं के अलावा चौथा कौन है ? झूठ मत बोल यह ले तीन का पैसा। मैं घर पर पूछूँगा, तब एक का पैसा दूँगा। अच्छा ! मनिहारीन तीन का पैसा ले कर चली गयी।

सेठजी ने घर पर पूछा कि चौथा कौन था जो चूड़ी पहना है। बहुऐं बोली कि हम तीन के अलावा तो  कोई भी नहीं था। रात को सोने से पहले पुत्री राधारानी को स्मरण करके सो गये। नींद मे राधाजी प्रगट हुईं।
सेठजी बोले "बेटी बहुत उदास हो, क्या बात है?"

बृषभानु दुलारी बोली,

"तनया बनायो तात, नात ना निभायो।
मैं जानि पितु गेह, चूड़ी पहनि लिनी॥
आप मनिहारीन को मोल ना चुकायो।
तीन बहु याद, किन्तु बेटी को बिसरायो॥

कहत श्रीराधिका को नीर भरि आयो है!

कैसी भई दूरी, कहो कौन मजबूरी हाय,
आज चार चूड़ी काज मोहि बिसरायो है।

सेठजी की नींद टूट गयी,
             पर नीर नहीं टूटी, रोते रहे।
सुबेरा हुआ, स्नान ध्यान करके मनिहारीन के घर सुबह सुबह पहुँच गये। मनिहारीन देखकर चकित हुई। सेठजी आंखों मे आंसू लिये बोले

धन धन भाग तेरो मनिहारीन,
तोरे से बड़भागी नहीं कोई संत महंत पुजारी।
धन धन भाग तेरो मनिहारीन॥

मनिहारीन बोली क्या हुआ ? सेठजी आगे बोले

"मैने मानी सुता किन्तु,
                निज नैनन नहीं निहारी,

चूड़ी पहनगयी तव कर
                ते श्री बृषभानु दुलारी।

धन धन भाग तेरो मनिहारीन

बेटी की चूड़ी पहिराई,
लेहु जाहू तौ बलिहारी

जुगल नयन जलते भरि,
मुख ते कहे न बोल।

मनिहारीन के पांय पड़ि,
लगे चुकावन मोल।"

मनिहारीन सोची

जब तोहि मिलो अमोल धन,
अब काहे मांगत मोल।

ऐ मन मेरो प्रेम से श्रीराधे राधे बोल,
श्रीराधे राधे बोल, श्रीराधे राधे बोल॥

सेठ जी का जीवन धन्य हो गया।