Saturday, 9 May 2020

नफरत का परिणाम

।।नफरत का परिणाम।।
समुन्द्र में भारण्ड नाम का एक विचित्र पक्षी रहता था,जिसके दो मुख व एक पेट था।एक दिन भारण्ड समुन्द्र में नहा रहा था कि एक छोटा-सा फल तैरता हुआ  आया और एक मुख ने उसे अपनी जीभ पर रखकर खाया तो वह फल बड़ा ही मीठा लगा तो वह अपने श्रीमुख से बोला,"ओह, कितना मीठा है यह फल! आज तक इतना स्वादिष्ट फल कभी खाने को नही मिला।"
दूसरे मुख ने जब यह सब सुना तो उसने अपना मुख बिगाड़ते हुए बोला,"अरे नीच,तू बड़ा स्वार्थी है।तूने मुझे उस फल का स्वाद भी नही कराया।"
पहला मुख हँसकर बोला,"अरे,तो इतना बिगड़ता क्यों है?सोच तो,मैं और तू क्या अलग-अलग है?चाहे मैं खाऊँ, चाहे तू खाए, बात एक ही है क्योंकि पेट तो दोनों का एक ही है।क्यो बेवजह अपने-पराए का भेदभाव खड़ा करता है।?"
दूसरे मुख ने प्रत्युत्तर में कुछ नही कहा लेकिन मन ही मन पहले मुख से खूब नफरत करने लगा और इस अपमान का बदला लेने का उपाय सोचने लगा।एक दिन उसके हाथ एक विषफल आया और पहले मुख को दिखाकर बोला,"अरे दुष्ट!देख मुझे भी आज एक फल मिला है और मैं भी तुझे कुछ नही दूँगा।"
पहला मुख चिल्लाया,"अरे भैया!यह क्या गजब करता है?इसे मत खा।यह विषफल है।इसके खाने से मैं ही नहीं तू भी मर जायेगा।"
दूसरा मुख बोला,"कुछ भी हो ,मैं इस फल को जरूर खाऊंगा और तेरे अपमान का बदला लूँगा।तभी मुझे शांति मिलेगी।बाद में मरु या जीऊं,इसकी मुझे चिंता नही।"
पहले मुख ने बहुत अनुनय-विनय किया लेकिन दूसरे मुख ने उसकी एक न सुनी और विषफल खा ही लिया।परिणाम वही हुआ,जो होना था।फल का विष पेट में जाकर फैल गया और  भारण्ड पक्षी छटपटाकर मर गया।
इस कहानी से सीख मिलती है कि  नफरत-ईर्ष्या से सदा हानि ही होती है। संत-महापुरुष और सज्जन लोग अपने जीवन में कदापि किसी से नफरत नही करते है।वे अजातशत्रु बनकर अपना जीवन खुशी से जीते हैं और जीवन में खूब यश-कीर्ति पाते हैं।

Saturday, 25 April 2020

Lord Parshurama

अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनुमांश्च विभिषण:।
कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविनः ।।
Lord Parshurama is the sixth avatar of Vishnu in Hinduism. Born as a brahmin, Parashurama carried traits of a Kshatriya and is often regarded as a Brahmin-Kshatriya. He carried a number of Kshatriya traits, which included aggression, warfare and valor; also, serenity, prudence and patience. He, along with only Hanuman and Indrajita, is considered to be one of the very few Atimaharathi warriors ever born on Earth. Like other incarnations of Vishnu, he was foretold to appear at a time when overwhelming evil prevailed on earth. The Kshatriya class, with weapons and power, had begun to abuse their power, take what belonged to others by force and tyrannize people. Parashurama corrects the cosmic equilibrium by destroying these Kshatriya warriors.

According to Hindu legends, Parashurama was born to a Brahmin sage Jamadagni and his wife Renuka, living in a hut. They have a celestial cow called Surabhi which gives all they desire. A king named Kartavirya Arjuna learns about it and wants it. He asks Jamadagni to give it to him, but the sage refuses. While Parashurama is away from the hut, the king takes it by force. Parashurama learns about this crime, and is upset. With his axe in his hand, he challenges the king to battle. They fight, and Parushama kills the king, according to the Hindu History. The warrior class challenges him, and he kills all his challengers. The legend likely has roots in the ancient conflict between the Brahmin varna (class), with religious duties, and the Kshatriya varna, with warrior and enforcement roles.

Friday, 17 April 2020

दानी कर्ण और चंचल मन।

।।दानी कर्ण और चंचल मन।।
महाभारत में कर्ण की एक कहानी है।एक दिन कर्ण तेल से स्नान कर रहे थे।किसी ने उनसे तेल का सोने का पात्र मांगा और कर्ण ने तुरंत बाएं हाथ से पात्र दे दिया। पात्र लेने वाले ने आपत्ति जताई कि "बाएं हाथ से कुछ सामान देना सही नही है।" यह सुनकर कर्ण ने स्पष्ट किया कि "उनका दायाँ हाथ तेल से छना हुआ है और जब तक वे हाथ धोने जाते,हो सकता है कि उनका चंचल मन कही पलट जाय।"
    कर्ण ने बड़े विनम्र भाव से कहा कि,"हे महाशय,आप मेरा यह स्वर्ण पात्र सहर्ष ग्रहण कीजिए।"
यदि जीवन में दान करना चाहते हो तो कर्ण की तरह कीजिए, क्योकि हममें से ज्यादातर लोगों का मन चंचल होता है जो हमारे अच्छे फैसले को पलट सकता है। 
दान की महिमा अपरंपार है।दान करने से स्वर्ग जैसा सुख और आनंद प्राप्त होता है।
आप सभी वंदनीय बंधुजन-बहनों को मेरा प्रातःकालीन सादर अभिनंदन-वन्दन सा।

मयूर पंख


  वनवास के दौरान माता सीताजी को 
पानी की प्यास लगी, तभी श्रीरामजी ने 
चारों ओर देखा, तो उनको दूर-दूर तक 
     जंगल ही जंगल दिख रहा था.
 कुदरत से प्रार्थना करी ~ हे जंगलजी !
     आसपास जहाँ कहीं पानी हो,
  वहाँ जाने का मार्ग कृपया सुझाईये.

      तभी वहाँ एक मयूर ने आकर  
 श्रीरामजी से कहा कि आगे थोड़ी दूर पर 
    एक जलाशय है. चलिए मैं आपका 
      मार्ग पथ प्रदर्शक बनता हूँ,  किंतु 
      मार्ग में हमारी भूल चूक होने की 
                 संभावना है.

     श्रीरामजी ने पूछा ~ वह क्यों ? 
      तब मयूर ने उत्तर दिया कि ~
   मैं उड़ता हुआ जाऊंगा और आप 
   चलते  हुए आएंगे, इसलिए मार्ग में 
 मैं अपना एक-एक पंख बिखेरता हुआ 
     जाऊंगा. उस के सहारे आप 
   जलाशय तक पहुँच ही जाओगे.

  इस बात को हम सभी जानते हैं कि
  मयूर के पंख, एक विशेष समय एवं 
    एक विशेष ऋतु में ही बिखरते हैं.
     अगर वह अपनी इच्छा विरुद्ध 
         पंखों को बिखेरेगा, तो 
        उसकी मृत्यु हो जाती है.

    और वही हुआ. अंत में जब मयूर 
   अपनी अंतिम सांस ले रहा होता है,
      उसने मन में ही कहा कि 
    वह कितना भाग्यशाली है, कि 
    जो जगत की प्यास बुझाते हैं, 
  ऐसे प्रभु की प्यास बुझाने का उसे 
          सौभाग्य प्राप्त हुआ.
        मेरा जीवन धन्य हो गया.
 अब मेरी कोई भी इच्छा शेष नहीं रही.

तभी भगवान श्रीराम ने मयूर से कहा कि 
 मेरे लिए तुमने जो मयूर पंख बिखेरकर, 
   मुझ पर जो ऋणानुबंध चढ़ाया है,
     मैं उस ऋण को अगले जन्म में 
              जरूर चुकाऊंगा ....

     *★मेरे सिर पर धारण करके★*

        तत्पश्चात अगले जन्म में 
     श्री कृष्ण अवतार में उन्होंने 
    अपने माथे पर मयूर पंख को 
      धारण कर वचन अनुसार 
    उस मयूर का ऋण उतारा था.

       

       तात्पर्य यही है कि  
 अगर भगवान को ऋण उतारने के लिए 
        पुनः जन्म लेना पड़ता है, तो 
  हम तो मानव हैं. न जाने हम कितने ही 
          ऋणानुबंध से बंधे हैं.
     उसे उतारने के लिए हमें तो 
   कई जन्म भी कम पड़ जाएंगे.
          ~~  अर्थात  ~~
    जो भी भला हम कर सकते हैं,
      इसी जन्म में हमें करना है।

Saturday, 11 April 2020

घास का तिनका

घास का तिनका

रामायण में एक घास के तिनके का भी रहस्य है, जो हर किसी को नहीं मालूम क्योंकि आज तक हमने हमारे ग्रंथो को 
सिर्फ पढ़ा, समझने की कोशिश नहीं की।
रावण ने जब माँ सीता जी का हरण करके लंका ले गया तब लंका मे सीता जी वट वृक्ष के नीचे बैठ कर चिंतन करने लगी। रावण बार बार आकर माँ सीता जी को धमकाता था, लेकिन माँ सीता जी कुछ नहीं बोलती थी। यहाँ तक की रावण ने श्री राम जी के वेश भूषा मे आकर माँ सीता जी को 
भ्रमित करने की भी कोशिश की लेकिन फिर भी सफल नहीं हुआ,
रावण थक हार कर जब अपने शयन कक्ष मे गया तो मंदोदरी ने उससे कहा आप  तो राम का वेश धर कर गये थे, फिर क्या हुआ?
रावण बोला- जब मैं राम का रूप लेकर सीता के समक्ष गया तो सीता मुझे नजर ही नहीं आ रही थी ।
रावण अपनी समस्त ताकत लगा चुका था लेकिन जिस जगत जननी माँ को आज तक कोई नहीं समझ सका, उन्हें रावण भी कैसे समझ पाता !
रावण एक बार फिर आया और बोला मैं तुमसे सीधे सीधे संवाद करता हूँ लेकिन तुम कैसी नारी हो कि मेरे आते ही घास का तिनका उठाकर उसे ही घूर-घूर कर देखने लगती हो,
क्या घास का तिनका तुम्हें राम से भी ज्यादा प्यारा है?  
रावण के इस प्रश्न को सुनकर माँ सीता जी बिलकुल चुप हो गयी और उनकी आँखों से आसुओं की धार बह पड़ी।
इसकी सबसे बड़ी वजह थी कि
जब श्री राम जी का विवाह माँ सीता जी के साथ हुआ,तब सीता जी का बड़े आदर सत्कार के साथ गृह प्रवेश भी हुआ। बहुत उत्सव मनाया गया।    *प्रथानुसार नव वधू विवाह पश्चात जब ससुराल आती है तो उसके हाथ से कुछ मीठा पकवान बनवाया जाता है, ताकि जीवन भर घर में मिठास बनी रहे।* 
इसलिए माँ सीता जी ने उस दिन अपने हाथों से घर पर खीर बनाई और समस्त परिवार, राजा दशरथ एवं तीनों रानियों  सहित चारों भाईयों और ऋषि संत भी भोजन पर आमंत्रित थे।
माँ सीता ने सभी को खीर परोसना शुरू किया, और भोजन शुरू होने ही वाला था की ज़ोर से एक हवा का झोका आया। सभी ने अपनी अपनी पत्तलें सम्भाली,सीता जी बड़े गौर से सब देख रही थी।
ठीक उसी समय राजा दशरथ जी की खीर पर एक छोटा सा घास का तिनका गिर गया, जिसे माँ सीता जी ने देख लिया। लेकिन अब खीर मे हाथ कैसे डालें? ये प्रश्न आ गया। माँ सीता जी ने दूर से ही उस तिनके को घूर कर देखा  वो जल कर राख की एक छोटी सी बिंदु बनकर रह गया। सीता जी ने सोचा 'अच्छा हुआ किसी ने नहीं देखा'।
लेकिन राजा दशरथ माँ सीता जी 
के इस चमत्कार को देख रहे थे। फिर भी दशरथ जी चुप रहे और अपने कक्ष पहुचकर माँ सीता जी को बुलवाया ।
फिर उन्होंने सीताजी से कहा कि मैंने आज भोजन के समय आप के चमत्कार को देख लिया था ।
आप साक्षात जगत जननी स्वरूपा हैं, लेकिन एक बात आप मेरी जरूर याद रखना।
आपने जिस नजर से आज उस तिनके को देखा था उस नजर से आप अपने शत्रु को भी कभी मत देखना।
इसीलिए माँ सीता जी के सामने जब भी रावण आता था तो वो उस घास के तिनके को उठाकर राजा दशरथ जी की बात याद कर लेती थी।
*तृण धर ओट कहत वैदेही*
*सुमिरि अवधपति परम् सनेही*

*यही है उस तिनके का रहस्य* ! 
इसलिये माता सीता जी चाहती तो रावण को उस जगह पर ही राख़ कर 
सकती थी, लेकिन राजा दशरथ जी को दिये वचन एवं भगवान श्रीराम को रावण-वध का श्रेय दिलाने हेतु वो शांत रही !
ऐसी विशालहृदया थीं हमारी जानकी माता !
जय हो प्रभु श्री राम जी की...
साभार
       ✍️  वेद प्रकाश पांडेय जी(सनातन धर्म प्रचारक)

Friday, 7 February 2020

19 ऊंट की कहानी

एक गाँव में एक व्यक्ति के पास 19 ऊंट थे। एक दिन उस व्यक्ति की मृत्यु हो गयी। मृत्यु के पश्चात वसीयत पढ़ी गयी। जिसमें लिखा था कि:मेरे 19 ऊंटों में से आधे मेरे बेटे को,19 ऊंटों में से एक चौथाई मेरी बेटी को, और 19 ऊंटों में से पांचवाँ हिस्सा मेरे नौकर को दे दिए जाएँ।सब लोग चक्कर में पड़ गए कि ये बँटवारा कैसे हो ?19 ऊंटों का आधा अर्थात एक ऊँट काटना पड़ेगा, फिर तो ऊँट ही मर जायेगा। चलो एक को काट दिया तो बचे 18 उनका एक चौथाई साढ़े चार- साढ़े चार. फिर?सब बड़ी उलझन में थे। फिर पड़ोस के गांव से एक बुद्धिमान व्यक्ति को बुलाया गया।वह बुद्धिमान व्यक्ति अपने ऊँट पर चढ़ कर आया, समस्या सुनी, थोडा दिमाग लगाया, फिर बोला इन 19 ऊंटों में मेरा भी ऊँट मिलाकर बाँट दो।सबने सोचा कि एक तो मरने वाला पागल था, जो ऐसी वसीयत कर के चला गया, और अब ये दूसरा पागल आ गया जो बोलता है कि उनमें मेरा भी ऊँट मिलाकर बाँट दो। फिर भी सब ने सोचा बात मान लेने में क्या हर्ज है।19+1=20 हुए।20 का आधा 10, बेटे को दे दिए।20 का चौथाई 5, बेटी को दे दिए।20 का पांचवाँ हिस्सा 4, नौकर को दे दिए।10+5+4=19 बच गया एक ऊँट, जो बुद्धिमान व्यक्ति का था...वो उसे लेकर अपने गॉंव लौट गया।इस तरह 1 उंट मिलाने से, बाकी 19 उंटो का बंटवारा सुख, शांति, संतोष व आनंद से हो गया।सो हम सब के जीवन में भी 19 ऊंट होते हैं।5 ज्ञानेंद्रियाँ(आँख, नाक, जीभ, कान, त्वचा)5 कर्मेन्द्रियाँ(हाथ, पैर, जीभ, मूत्र द्वार, मलद्वार)5 प्राण(प्राण, अपान, समान, व्यान, उदान)और4 अंतःकरण(मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार)कुल 19 ऊँट होते हैं। सारा जीवन मनुष्य इन्हीं 19 ऊँटो के बँटवारे में उलझा रहता है।और जब तक उसमें मित्र रूपी ऊँट नहीं मिलाया जाता यानी के दोस्तों के साथ.... सगे-संबंधियों के साथ जीवन नहीं जिया जाता, तब तक सुख, शांति, संतोष व आनंद की प्राप्ति नहीं हो सकती।

Monday, 20 January 2020

भोले नाथ

शंकर भोले नाथ का, रोज करे अभिषेक।
सिर पर धरते हाथ शिव, देते बुध्दि विवेक ।।

होने को अभिषेक था, हुआ राम वनवास।
रोते हैं नर नारियाँ, सरयू अवध उदास ।।

लंका पति के बाद में,मिला विभीषण ताज ।
किया राम अभिषेक है,दिया लंक का राज ।।

अभिषेक किये श्याम ने, मित्र सुदामा जान ।
वैभव तीनों लोक का, दिये कृष्ण भगवान ।।

भस्म से अभिषेक हो, महाकाल के भाल।
पल में विपदा टालते, हैं कालों के काल ।।