Friday, 7 February 2020
19 ऊंट की कहानी
Monday, 20 January 2020
भोले नाथ
Monday, 13 May 2019
माता गुरूतरा भूमेः
माता गुरूतरा भूमेः
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महाभारत में जब यक्ष धर्मराज युधिष्ठिर से सवाल करते हैं कि 'भूमि से भारी कौन?' तब युधिष्ठर जवाब देते हैं, 'माता गुरूतरा भूमेः युधिष्ठिर द्वारा माँ के इस विशिष्टता को प्रतिपादित करना यूं ही नहीं है आप अगर वेद पढ़ेंगें तो वेद माँ की महिमा बताते हुए कहती है कि माँ के आचार-विचार अपने शिशु को सबसे अधिक प्रभावित करतें हैं. इसलिये संतान जो कुछ भी होता है उसपर सबसे अधिक प्रभाव उसकी माँ का होता है. माँ धरती से भी गुरुत्तर इसलिये है क्योंकि उसके संस्कारों और शिक्षाओं में वो शक्ति है जो किसी भी स्थापित मान्यता, धारणाओं और विचारों की प्रासंगिकता खत्म कर सकती है.
इन बातों का बड़ा सशक्त उदाहारण हमारे पुराणों में वर्णित माँ मदालसा के आख्यान में मिलता है. मदालसा राजकुमार ऋतुध्वज की पत्नी थी. ऋतुध्वज एक बार असुरों से युद्ध करने गये, युद्ध में इनकी सेना असुर पक्ष पर भारी पड़ रही थी, ऋतुध्वज की सेना का मनोबल टूट जाये इसलिये मायावी असुरों ने ये अफवाह फैला दी कि ऋतुध्वज मारे गये हैं. ये खबर ऋतुध्वज की पत्नी मदालसा तक भी पहुँची तो वो इस गम को बर्दाश्त नहीं कर सकी और इस दुःख में उसने अपने प्राण त्याग दिये. इधर असुरों पर विजय प्राप्त कर जब ऋतुध्वज लौटे तो वहां मदालसा को नहीं पाया. मदालसा के गम ने उन्हें मूर्छित कर दिया और राज-काज छोड़कर अपनी पत्नी के वियोग में वो विक्षिप्तों की तरह व्यवहार करने लगे. ऋतुध्वज के एक प्रिय मित्र थे नागराज. उनसे अपने मित्र की ये अवस्था देखी न गई और वो हिमालय पर तपस्या करने चले गये ताकि महादेव शिव को प्रसन्न कर सकें. शिव प्रकट हुए और वरदान मांगने को कहा तो नागराज ने उनसे अपने लिये कुछ न मांग कर अपने मित्र ऋतुध्वज के लिये मदालसा को पुनर्जीवित करने की मांग रख दी. शिवजी के वरदान से मदालसा अपने उसी आयु के साथ मानव-जीवन में लौट आई और पुनः ऋतूध्वज को प्राप्त हुई.
मृत्यु के पश्चात मिले पुनर्जीवन ने मदालसा को मानव शरीर की नश्वरता और जीवन के सार-तत्व का ज्ञान करा दिया था, अब वो पहले वाली मदालसा नहीं थी लेकिन उसने अपने व्यवहार से इस बात को प्रकट नहीं होने दिया. पति से वचन लिया कि होने वाली संतानों के लालन-पालन का दायित्व उसके ऊपर होगा और पति उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं करेंगें. मदालसा गर्भवती हुई तो अपने गर्भस्थ शिशु को संस्कारित करने लगी. उसे भी वो ज्ञान देने लगी जिस ज्ञान से वो स्वयं परिपूर्ण थी. वो अपने गर्भस्थ शिशु को लोरी सुनाते हुये कहती थी कि ऐ मेरे बेटे, तू शुद्ध है, बुद्ध है, संसार की माया से निर्लिप्त है. एक के बाद एक तीन पुत्र हुए, पिता क्षत्रिय थे, उनकी मान्यता थी कि पुत्रों का नाम भी क्षत्रिय-गुणों के अनुरूप हो इसलिये उस आधार पर अपने पुत्रों का नाम रखा, विक्रांत, सुबाहू और शत्रुमर्दन. उसके सारे पुत्र मदालसा से संस्कारित थे, मदालसा ने उन्हें माया से निर्लिप्त निवृतिमार्ग का साधक बनाया था इसलिये सबने राजमहल त्यागते हुये संन्यास ले लिया. पिता बड़े दु:खी हुये कि ऐसा हुआ तो कैसे चलेगा. मदालसा फिर से गर्भवती हुई तो पति ने अनुरोध किया कि हमारी सब संतानें अगर निवृतिमार्ग की पथिक बन गई तो ये विराट राज-पाट को कौन संभालेगा इसलिये कम से कम इस पुत्र को तो राजकाज की शिक्षा दो. मदालसा ने पति की आज्ञा मान ली. जब चौथा पुत्र पैदा हुआ तो पिता अपने पहले तीन पुत्रों की तरह उसका नाम भी क्षत्रियसूचक रखना चाहते थे जिसपर मदालसा हँस पड़ी और कहा, आपने पहले तीन पुत्रों के नाम भी ऐसे ही रखे थे उससे क्या अंतर पड़ा फिर इसका क्षत्रियोचित नाम रखकर भी क्या हासिल होगा. राजा ऋतुध्वज ने कहा, फिर तुम ही इसका नाम रखो. मदालसा ने चौथे पुत्र को अलर्क नाम दिया और उसे राजधर्म और क्षत्रियधर्म की शिक्षा दी.
अलर्क दिव्य माँ से संस्कारित थे इसलिये उनकी गिनती सर्वगुणसंपन्न राजाओं में होती है. उन्हें राजकाज की शिक्षा के साथ माँ ने न्याय, करुणा, दान इन सबकी भी शिक्षा दी थी. वाल्मीकि रामायण में आख्यान मिलता है कि एक नेत्रहीन ब्राह्मण अलर्क के पास आया था और अलर्क ने उसे अपने दोनों नेत्र दान कर दिये थे. इस तरह अलर्क विश्व के पहले नेत्रदानी हैं. इस अद्भुत त्याग की शिक्षा अलर्क को माँ मदालसा के संस्कारों से ही तो मिली थी.
बालक क्षत्रिय कुल में जन्मा हो तो ब्रह्मज्ञानी की जगह रणकौशल से युक्त होगा, नाम शूरवीरों जैसे होंगें तो उसी के अनुरूप आचरण करेगा इन सब स्थापित मान्यताओं को मदालसा ने एक साथ ध्वस्त करते हुए दिखा दिया कि माँ अगर चाहे तो अपने बालक को शूरवीर और शत्रुंजय बना दे और वो अगर चाहे तो उसे धीर-गंभीर, महात्मा, ब्रह्मज्ञानी और तपस्वी बना दे. अपने पुत्र को एक साथ साधक और शासक दोनों गुणों से युक्त करने का दुर्लभ काम केवल माँ का संस्कार कर सकता है जो अलर्क में माँ मदालसा ने भरे थे. स्वामी विवेकानंद ने यूं ही नहीं कहा था कि अगर मेरी कोई संतान होती तो मैं जन्म से ही उसे मदालसा की लोरी सुनाते हुये कहता, त्वमअसि निरंजन...
भारत की धरती मदालसा की तरह अनगिनत ऐसे माँओं की गाथाओं से गौरवान्वित है जिसने इस भारत भूमि और महान हिन्दू धर्म को चिरंजीवी बनाये रखा है. ये यूं ही नहीं है कि परमेश्वर और देवताओं की अभ्यर्चनाओं से भरे ऋग्वेद में ऋषि वो सबकुछ माँ से मांगता है जिसे प्रदत्त करने के अधिकारी परमपिता परमेश्वर को माना जाता है, ऋषि माँ से अभ्यर्चना करते हुए कहता है,
हे उषा के समान प्राणदायिनी माँ. हमें महान सन्मार्ग पर चलने के लिये प्रेरित करो, तुम हमें नियम-परायण बनाओं और हमें यश तथा अद्भुत ऐश्वर्य प्रदान करो.
माँ की महिमा का इससे बड़ा प्रमाण और कहीं मिलेगा ?
✍🏻
~ अभिजीत सिंह
बहुत समय पहले जब विदेशों में पोस्ट ऑफिस की शुरुआत हुई तो एक बहुत बड़ा वर्ग इसके विरोध में खड़ा हो गया | उनका मानना था कि पोस्ट ऑफिस के जरिये महिलाएं बिना घर के लोगों की जानकारी के यहाँ वहां चिट्ठियां भेजा करेंगी | इस तरह उनके “चरित्रहीन” हो जाने का “खतरा” बहुत बढ़ जायेगा !
लड़कियों के चिट्ठी लिखने पर तो छोड़िये, लड़कियों के पढ़ने लिखने पर भी सदियों तक पाबन्दी रही है |
ऐसे में ये भी याद आता है कि “थेरीगाथा” ऐसा पहला ग्रन्थ है जो सिर्फ महिलाओं द्वारा लिखा गया | इसे 600 BCE में भारत में ही लिखा गया था | कई अलग अलग महिलाओं ने इस काव्य संकलन में अपना योगदान दिया है | एक कविता किसी गणिका की है, एक धन-दौलत छोड़कर बौद्ध भिक्षुणी बन गई महिला की भी है | एक कविता तो गौतम बुद्ध की सौतेली माता की भी है |
हमेशा से विदुषियों के देश रहे भारत की जनता को मातृ दिवस की शुभकामनायें !
वैदिक महिला विद्वानो में शिक्षिकाओ का जिक्र है इनके लिखे मंत्र है।
लोपामुद्रा, गार्गी, घोषा, मैत्रेय , लोपामुद्रा , भारती , अपाला आदि इनमे मुख्य है। योद्धाओं में कैकेई , विश्पला , आदि ।
आनन्दी गोपाल जोशी 1865 मे पैदा हुई MD डाक्टर थी।
कादम्बनी गांगुली 1861 मे पैदा हुई MBBS डाक्टर थी।
चंद्रमुखी वसु को 1882 मे ग्रेजुएट डिग्री मिली थी।
सरोजनी (चटोपाध्याय) नायडू born 1879 सुप्रसिद्ध कवित्री थी। 1947 मे सयुक्त प्रांत ( अब UP) की गवर्नर थी।
आजादी की लडाई मे भाग लेने वानी अनोको अनगिनत पढी लिखी महिलाये है जिनमे भीखाजी कामा रूस्तम, प्रितिला वाड्डेदार, विजयालक्ष्मी पंडित, राजकुमारी अमृत कौर, अरूणा आसिफ अली, सुचेता कृपलानी, मुत्थुलक्ष्मी रेड्डी, दुर्गाबाई देशमुख, कैप्टिन लक्ष्मी सहगल आदि और जाने कितनी ही अनगिनत है।
सरला (शर्मा) ठकराल 1936 मे विमान पायलेट का थी।
जाॅन बेथुन ने 1849 मे कोलकाता मे पहले केवल महिलाओ के लिये कालेज की स्थापना की थी।
1916 मे मुम्बई मे पहली महिला यूनिवर्सिटी की स्थापना हुई थी जिसके तीन कैम्पस थे। और अनेक महिला कालेज इससे सम्बधित भी हुई।
पंडिता रमाबाई को शिक्षा और समाज सेवा के क्षेत्र मे योगदान के लिये ब्रिटिश सरकार द्वारा 1919 मे केसरी ए हिन्दी मेडल दिया गया था।
6 फरवरी 1932 को बीना दास ने कन्वोकेशन मे डिग्री लेते समय ही गवर्नर को गोली मारी थी।
इसके अलावा अंग्रेजी समय और मध्य काल मे भी विभिन्न रियसतो और राज्यो की शासक महिलाये हुई है। जिन्होने सेना की कमान भी सभाली और विभिन्न युद्धो मे भाग भी लिया।
संविधान बनने के समय मे संविधान सभा मे भी अनेको पढी लिखी महिला मेम्बर भी थी। जिनमे कि हंसा मेहता ने हिन्दू कोड बिल सदन मे रखते ही अम्बेडकर को महिलाओ के प्रति दुराग्रह और बिल मे कमियो को लेकर लताड भी लगाई थी।
फिर भी कुछ आरक्षण से आधे पढे लिखे विद्वान इस तरह का दावा करते फिरते है मानो 1950 से पहले इस देश मे कोई पढी लिखी स्त्री नही थी। ।
जबकि 1951 की जनगणना मे इस देश मे साक्षर लोगो की संख्या ही 15% थी। मतलब की पढे लिखे लोग 1951 तक 4-5% से अधिक नही थे। महिलाये ही नही पूरे देश मे पढे लिखे लोगो की कुल संख्या ही बहुत कम थी। इन आरक्षित अनपढ लोगो ने इन्टरनेट पर गलत जानकारी का अम्बार लगाया हुआ है ।
राजा सर्फोजी भोसले 1798 से 1832 तक तन्जौर के महाराजा रहे। इन्होने धनवन्त्री महल नामक अस्पताल खोला। मेडिकल साइन्स की कई आधुनिक रिसर्च की।
इन्होने महिलाओ की शिक्षा के लिये स्कूल कालेज खोले जिनमे की केवल महिलायें ही शिक्षक थी।
झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, रानी चेनम्मा, रानी अब्बक्का जैसी अंग्रेजों की गुलामी से ठीक पहले की रानियों का जिक्र होते ही एक सवाल दिमाग में आता है | युद्ध तलवारों से, तीरों से, भाले – फरसे जैसे हथियारों से लड़ा जाता था उस ज़माने में तो ! इनमे से कोई भी 5-7 किलो से कम वजन का नहीं होता | इतने भारी हथियारों के साथ दिन भर लड़ने के लिए stamina भी चाहिए और training भी |
रानी के साथ साथ उनकी सहेलियों, बेटियों, भतीजियों, दासियों के भी युद्ध में भाग लेने का जिक्र आता है | इन सब ने ये हथियार चलाने सीखे कैसे ? घुड़सवारी भी कोई महीने भर में सीख लेने की चीज़ नहीं है | उसमे भी दो चार साल की practice चाहिए | ढेर सारी खुली जगह भी चाहिए इन सब की training के लिए | Battle formation या व्यूह भी पता होना चाहिए युद्ध लड़ने के लिए, पहाड़ी और समतल, नदी और मैदानों में लड़ने के तरीके भी अलग अलग होते हैं | उन्हें सिखाने के लिए तो कागज़ कलम से सिखाना पड़ता है या बरसों युद्ध में भाग ले कर ही सीखा जा सकता है |
अभी का इतिहास हमें बताता है की पुराने ज़माने में लड़कियों को शिक्षा तो दी ही नहीं जाती थी | उनके गुरुकुल भी नहीं होते थे ! फिर ये सारी महिलाएं युद्ध लड़ना सीख कैसे गईं ? ब्राम्हणों के मन्त्र – बल से हुआ था या कोई और तरीका था सिखाने का ?
लड़कियों की शिक्षा तो नहीं होती थी न ? लड़कियों के गुरुकुल भी नहीं ही होते थे ?
Friday, 2 November 2018
जब लंकाधीश रावण पुरोहित बना ...
जब लंकाधीश रावण पुरोहित बना ..."
(अद्भुत प्रसंग, भावविभोर करने वाला प्रसंग)
बाल्मीकि रामायण और तुलसीकृत रामायण में इस कथा का वर्णन नहीं है, पर तमिल भाषा में लिखी *महर्षि कम्बन की #इरामावतारम्'* मे यह कथा है।
रावण केवल शिवभक्त, विद्वान एवं वीर ही नहीं, अति-मानववादी भी था..। उसे भविष्य का पता था..। वह जानता था कि श्रीराम से जीत पाना उसके लिए असंभव है..।
जब श्री राम ने खर-दूषण का सहज ही बध कर दिया तब तुलसी कृत मानस में भी रावण के मन भाव लिखे हैं--
खर दूसन मो सम बलवंता ।
तिनहि को मरहि बिनु भगवंता।।
रावण के पास जामवंत जी को #आचार्यत्व का निमंत्रण देने के लिए लंका भेजा गया..।
जामवन्त जी दीर्घाकार थे, वे आकार में कुम्भकर्ण से तनिक ही छोटे थे। लंका में प्रहरी भी हाथ जोड़कर मार्ग दिखा रहे थे। इस प्रकार जामवन्त को किसी से कुछ पूछना नहीं पड़ा। स्वयं रावण को उन्हें राजद्वार पर अभिवादन का उपक्रम करते देख जामवन्त ने मुस्कराते हुए कहा कि मैं अभिनंदन का पात्र नहीं हूँ। मैं वनवासी राम का दूत बनकर आया हूँ। उन्होंने तुम्हें सादर प्रणाम कहा है।
रावण ने सविनय कहा– "आप हमारे पितामह के भाई हैं। इस नाते आप हमारे पूज्य हैं। आप कृपया आसन ग्रहण करें। यदि आप मेरा निवेदन स्वीकार कर लेंगे, तभी संभवतः मैं भी आपका संदेश सावधानी से सुन सकूंगा।"
जामवन्त ने कोई आपत्ति नहीं की। उन्होंने आसन ग्रहण किया। रावण ने भी अपना स्थान ग्रहण किया। तदुपरान्त जामवन्त ने पुनः सुनाया कि वनवासी राम ने सागर-सेतु निर्माण उपरांत अब यथाशीघ्र महेश्व-लिंग-विग्रह की स्थापना करना चाहते हैं। इस अनुष्ठान को सम्पन्न कराने के लिए उन्होंने ब्राह्मण, वेदज्ञ और शैव रावण को आचर्य पद पर वरण करने की इच्छा प्रकट की है।
" मैं उनकी ओर से आपको आमंत्रित करने आया हूँ।"
प्रणाम प्रतिक्रिया, अभिव्यक्ति उपरान्त रावण ने मुस्कान भरे स्वर में पूछ ही लिया
"क्या राम द्वारा महेश्व-लिंग-विग्रह स्थापना लंका-विजय की कामना से किया जा रहा है ?"
"बिल्कुल ठीक। श्रीराम की महेश्वर के चरणों में पूर्ण भक्ति है. I"
जीवन में प्रथम बार किसी ने रावण को ब्राह्मण माना है और आचार्य बनने योग्य जाना है। क्या रावण इतना अधिक मूर्ख कहलाना चाहेगा कि वह भारतवर्ष के प्रथम प्रशंसित महर्षि पुलस्त्य के सगे भाई महर्षि वशिष्ठ के यजमान का आमंत्रण और अपने आराध्य की स्थापना हेतु आचार्य पद अस्वीकार कर दे?
रावण ने अपने आपको संभाल कर कहा –" आप पधारें। यजमान उचित अधिकारी है। उसे अपने दूत को संरक्षण देना आता है। राम से कहिएगा कि मैंने उसका आचार्यत्व स्वीकार किया।"
जामवन्त को विदा करने के तत्काल उपरान्त लंकेश ने सेवकों को आवश्यक सामग्री संग्रह करने हेतु आदेश दिया और स्वयं अशोक वाटिका पहुँचे, जो आवश्यक उपकरण यजमान उपलब्ध न कर सके जुटाना आचार्य का परम कर्त्तव्य होता है। रावण जानता है कि वनवासी राम के पास क्या है और क्या होना चाहिए।
अशोक उद्यान पहुँचते ही रावण ने सीता से कहा कि राम लंका विजय की कामना से समुद्रतट पर महेश्वर लिंग विग्रह की स्थापना करने जा रहे हैं और रावण को आचार्य वरण किया है।
" .यजमान का अनुष्ठान पूर्ण हो यह दायित्व आचार्य का भी होता है। तुम्हें विदित है कि अर्द्धांगिनी के बिना गृहस्थ के सभी अनुष्ठान अपूर्ण रहते हैं। विमान आ रहा है, उस पर बैठ जाना। ध्यान रहे कि तुम वहाँ भी रावण के अधीन ही रहोगी। अनुष्ठान समापन उपरान्त यहाँ आने के लिए विमान पर पुनः बैठ जाना। "
स्वामी का आचार्य अर्थात स्वयं का आचार्य।
यह जान जानकी जी ने दोनों हाथ जोड़कर मस्तक झुका दिया।
. स्वस्थ कण्ठ से "सौभाग्यवती भव" कहते रावण ने दोनों हाथ उठाकर भरपूर आशीर्वाद दिया।
सीता और अन्य आवश्यक उपकरण सहित रावण आकाश मार्ग से समुद्र तट पर उतरे ।
" आदेश मिलने पर आना" कहकर सीता को उन्होंने विमान में ही छोड़ा और स्वयं राम के सम्मुख पहुँचे ।
जामवन्त से संदेश पाकर भाई, मित्र और सेना सहित श्रीराम स्वागत सत्कार हेतु पहले से ही तत्पर थे। सम्मुख होते ही वनवासी राम आचार्य दशग्रीव को हाथ जोड़कर प्रणाम किया।
" दीर्घायु भव ! लंका विजयी भव ! "
दशग्रीव के आशीर्वचन के शब्द ने सबको चौंका दिया ।
सुग्रीव ही नहीं विभीषण की भी उन्होंने उपेक्षा कर दी। जैसे वे वहाँ हों ही नहीं।
भूमि शोधन के उपरान्त रावणाचार्य ने कहा
" यजमान ! अर्द्धांगिनी कहाँ है ? उन्हें यथास्थान आसन दें।"
श्रीराम ने मस्तक झुकाते हुए हाथ जोड़कर अत्यन्त विनम्र स्वर से प्रार्थना की कि यदि यजमान असमर्थ हो तो योग्याचार्य सर्वोत्कृष्ट विकल्प के अभाव में अन्य समकक्ष विकल्प से भी तो अनुष्ठान सम्पादन कर सकते हैं।
" अवश्य-अवश्य, किन्तु अन्य विकल्प के अभाव में ऐसा संभव है, प्रमुख विकल्प के अभाव में नहीं। यदि तुम अविवाहित, विधुर अथवा परित्यक्त होते तो संभव था। इन सबके अतिरिक्त तुम संन्यासी भी नहीं हो और पत्नीहीन वानप्रस्थ का भी तुमने व्रत नहीं लिया है। इन परिस्थितियों में पत्नीरहित अनुष्ठान तुम कैसे कर सकते हो ?"
" कोई उपाय आचार्य ?"
" आचार्य आवश्यक साधन, उपकरण अनुष्ठान उपरान्त वापस ले जाते हैं। स्वीकार हो तो किसी को भेज दो, सागर सन्निकट पुष्पक विमान में यजमान पत्नी विराजमान हैं।"
श्रीराम ने हाथ जोड़कर मस्तक झुकाते हुए मौन भाव से इस सर्वश्रेष्ठ युक्ति को स्वीकार किया। श्री रामादेश के परिपालन में. विभीषण मंत्रियों सहित पुष्पक विमान तक गए और सीता सहित लौटे।
" अर्द्ध यजमान के पार्श्व में बैठो अर्द्ध यजमान ..."
आचार्य के इस आदेश का वैदेही ने पालन किया।
गणपति पूजन, कलश स्थापना और नवग्रह पूजन उपरान्त आचार्य ने पूछा - लिंग विग्रह ?
यजमान ने निवेदन किया कि उसे लेने गत रात्रि के प्रथम प्रहर से पवनपुत्र कैलाश गए हुए हैं। अभी तक लौटे नहीं हैं। आते ही होंगे।
आचार्य ने आदेश दे दिया - " विलम्ब नहीं किया जा सकता। उत्तम मुहूर्त उपस्थित है। इसलिए अविलम्ब यजमान-पत्नी बालू का लिंग-विग्रह स्वयं बना ले।"
जनक नंदिनी ने स्वयं के कर-कमलों से समुद्र तट की आर्द्र रेणुकाओं से आचार्य के निर्देशानुसार यथेष्ट लिंग-विग्रह निर्मित किया ।
यजमान द्वारा रेणुकाओं का आधार पीठ बनाया गया। श्री सीताराम ने वही महेश्वर लिंग-विग्रह स्थापित किया।
आचार्य ने परिपूर्ण विधि-विधान के साथ अनुष्ठान सम्पन्न कराया।.
अब आती है बारी आचार्य की दक्षिणा की..
श्रीराम ने पूछा - "आपकी दक्षिणा ?"
पुनः एक बार सभी को चौंकाया। ... आचार्य के शब्दों ने।
" घबराओ नहीं यजमान। स्वर्णपुरी के स्वामी की दक्षिणा सम्पत्ति नहीं हो सकती। आचार्य जानते हैं कि उनका यजमान वर्तमान में वनवासी है ..."
" लेकिन फिर भी राम अपने आचार्य की जो भी माँग हो उसे पूर्ण करने की प्रतिज्ञा करता है।"
"आचार्य जब मृत्यु शैय्या ग्रहण करे तब यजमान सम्मुख उपस्थित रहे ....." आचार्य ने अपनी दक्षिणा मांगी।
"ऐसा ही होगा आचार्य।" यजमान ने वचन दिया और समय आने पर निभाया भी--
“रघुकुल रीति सदा चली आई ।
प्राण जाई पर वचन न जाई ।”
यह दृश्य वार्ता देख सुनकर उपस्थित समस्त जन समुदाय के नयनाभिराम प्रेमाश्रुजल से भर गए। सभी ने एक साथ एक स्वर से सच्ची श्रद्धा के साथ इस अद्भुत आचार्य को प्रणाम किया ।
रावण जैसे भविष्यदृष्टा ने जो दक्षिणा माँगी, उससे बड़ी दक्षिणा क्या हो सकती थी? जो रावण यज्ञ-कार्य पूरा करने हेतु राम की बंदी पत्नी को शत्रु के समक्ष प्रस्तुत कर सकता है, वह राम से लौट जाने की दक्षिणा कैसे मांग सकता है ?
(रामेश्वरम् देवस्थान में लिखा हुआ है कि इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना श्रीराम ने रावण द्वारा करवाई थी )
Saturday, 21 July 2018
प्रभु की प्राप्ति किसे होती हैं ?
"प्रभु की प्राप्ति किसे होती हैं ?"
एक राजा था। वह बहुत न्याय प्रिय तथा प्रजा वत्सल एवं धार्मिक स्वभाव का था। वह नित्य अपने इष्ट देव की बडी श्रद्धा से पूजा-पाठ और याद करता था। एक दिन इष्ट देव ने प्रसन्न होकर उसे दर्शन दिये तथा कहा—“राजन् मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हैं। बोलो तुम्हारी कोई इच्छा है?”
प्रजा को चाहने वाला राजा बोला – “भगवन् मेरे पास आपका दिया सब कुछ हॆ। आपकी कृपा से राज्य मे सब प्रकार सुख-शान्ति हॆ। फिर भी मेरी एक ईच्छा हॆ कि जैसे आपने मुझे दर्शन देकर धन्य किया, वैसे ही मेरी सारी प्रजा को भी दर्शन दीजिये।”
“यह तो सम्भव नहीं है” – भगवान ने राजा को समझाया। परन्तु प्रजा को चाहने वाला राजा भगवान् से जिद्द् करने लगा। आखिर भगवान को अपने साधक के सामने झुकना पडा ओर वे बोले,-“ठीक है, कल अपनी सारी प्रजा को उस पहाडी के पास लाना। मैं पहाडी के ऊपर से दर्शन दूँगा।”
राजा अत्यन्त प्रसन्न. हुअा और भगवान को धन्यवाद दिया। अगले दिन सारे नगर मे ढिंढोरा पिटवा दिया कि कल सभी पहाड के नीचे मेरे साथ पहुँचे, वहाँ भगवान् आप सबको दर्शन देगें।
दूसरे दिन राजा अपने समस्त प्रजा और स्वजनों को साथ लेकर पहाडी की ओर चलने लगा। चलते-चलते रास्ते मे एक स्थान पर तांबे कि सिक्कों का पहाड देखा। प्रजा में से कुछ एक उस ओर भागने लगे। तभी ज्ञानी राजा ने सबको सर्तक किया कि कोई उस ओर ध्यान न दे,क्योकि तुम सब भगवान से मिलने जा रहे हो, इन तांबे के सिक्कों के पीछे अपने भाग्य को लात मत मारो।
परन्तु लोभ-लालच मे वशीभूत कुछ एक प्रजा तांबे कि सिक्कों वाली पहाडी की ओर भाग गयी और सिक्कों कि गठरी बनाकर अपने घर कि ओर चलने लगे। वे मन ही मन सोच रहे थे,पहले ये सिक्कों को समेट ले, भगवान से तो फिर कभी मिल लेगे।
राजा खिन्न मन से आगे बढे। कुछ दूर चलने पर चांदी कि सिक्कों का चमचमाता पहाड दिखाई दिया। इस बार भी बचे हुये प्रजा में से कुछ लोग, उस ओर भागने लगे ओर चांदी के सिक्कों को गठरी बनाकर अपनी घर की ओर चलने लगे। उनके मन मे विचार चल रहा था कि, ऐसा मौका बार-बार नहीं मिलता है। चांदी के इतने सारे सिक्के फिर मिले न मिले, भगवान तो फिर कभी मिल जायेगें।
इसी प्रकार कुछ दूर और चलने पर सोने के सिक्कों का पहाड नजर आया। अब तो प्रजाजनो में बचे हुये सारे लोग तथा राजा के स्वजन भी उस ओर भागने लगे। वे भी दूसरों की तरह सिक्कों कि गठरी लाद कर अपने-अपने घरों की ओर चल दिये।
अब केवल राजा ओर रानी ही शेष रह गये थे। राजा रानी से कहने लगे – “देखो कितने लोभी ये लोग। भगवान से मिलने का महत्व ही नहीं जानते हैं। भगवान के सामने सारी दुनिया कि दौलत क्या चीज है?” सही बात है- रानी ने राजा कि बात का समर्थन किया और वह आगे बढने लगे।
कुछ दुर चलने पर राजा ओर रानी ने देखा कि सप्तरंगि आभा बिखरता हीरों का पहाड है। अब तो रानी से रहा नहीं गया, हीरों के आर्कषण से वह भी दौड पडी,और हीरों कि गठरी बनाने लगी । फिर भी उसका मन नहीं भरा तो साड़ी के पल्लू मेँ भी बांधने लगी। वजन के कारण रानी के वस्त्र देह से अलग हो गये,परंतु हीरों का तृष्णा अभी भी नहीं मिटी। यह देख राजा को अत्यन्त ग्लानि ओर विरक्ति हुई। बड़े दुःखद मन से राजा अकेले ही आगे बढते गये।
वहाँ सचमुच भगवान खडे उसका इन्तजार कर रहे थे। राजा को देखते ही भगवान मुसकुराये ओर पुछा –“कहाँ है तुम्हारी प्रजा और तुम्हारे प्रियजन। मैं तो कब से उनसे मिलने के लिये बेकरारी से उनका इन्तजार कर रहा हूॅ।”
राजा ने शर्म और आत्म-ग्लानि से अपना सर झुका दिया। तब भगवान ने राजा को समझाया–
“राजन जो लोग भौतिक सांसारिक प्राप्ति को मुझसे अधिक मानते हॆ, उन्हें कदाचित मेरी प्राप्ति नहीं होती ओर वह मेरे स्नेह तथा आर्शिवाद से भी वंचित रह जाते हॆ।”
सार – जो आत्मायें अपनी मन ओर बुद्धि से भगवान पर कुर्बान जाते हैं, और सर्व सम्बधों से प्यार करते है, वह भगवान के प्रिय बनते हैं।