Tuesday, 31 October 2017

हृदय परिवर्तन 

*  हृदय परिवर्तन  *
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♦ एक राजा को राज भोगते काफी समय हो गया था । बाल भी सफ़ेद होने लगे थे । एक दिन उसने अपने दरबार में उत्सव रखा और अपने गुरुदेव एवं मित्र देश के राजाओं को भी सादर आमन्त्रित किया । उत्सव को रोचक बनाने के लिए राज्य की सुप्रसिद्ध नर्तकी को भी बुलाया गया ।

♦ राजा ने कुछ स्वर्ण मुद्रायें अपने गुरु जी को भी दीं, ताकि नर्तकी के अच्छे गीत व नृत्य पर वे उसे पुरस्कृत कर सकें । सारी रात नृत्य चलता रहा । ब्रह्म मुहूर्त की बेला आयी । नर्तकी ने देखा कि मेरा तबले वाला ऊँघ रहा है, उसको जगाने के लिए नर्तकी ने एक दोहा पढ़ा - *"बहु बीती, थोड़ी रही, पल पल गयी बिताई । एक पलक के कारने, ना कलंक लग जाए ।"*

♦ अब इस दोहे का अलग-अलग व्यक्तियों ने अपने अनुरुप अर्थ निकाला । तबले वाला सतर्क होकर बजाने लगा ।

♦ जब यह बात गुरु जी ने सुनी । गुरु जी ने सारी मोहरें उस नर्तकी के सामने फैंक दीं ।

♦ वही दोहा नर्तकी ने फिर पढ़ा तो राजा की लड़की ने अपना नवलखा हार नर्तकी को भेंट कर दिया ।

♦ उसने फिर वही दोहा दोहराया तो राजा के पुत्र युवराज ने अपना मुकट उतारकर नर्तकी को समर्पित कर दिया ।

♦ नर्तकी फिर वही दोहा दोहराने लगी तो राजा ने कहा - "बस कर, एक दोहे से तुमने वेश्या होकर सबको लूट लिया है ।"

♦ जब यह बात राजा के गुरु ने सुनी तो गुरु के नेत्रों में आँसू आ गए और गुरु जी कहने लगे - "राजा ! इसको तू वेश्या मत कह, ये अब मेरी गुरु बन गयी है । इसने मेरी आँखें खोल दी हैं । यह कह रही है कि मैं सारी उम्र जंगलों में भक्ति करता रहा और आखिरी समय में नर्तकी का मुज़रा देखकर अपनी साधना नष्ट करने यहाँ चला आया हूँ, भाई ! मैं तो चला ।" यह कहकर गुरु जी तो अपना कमण्डल उठाकर जंगल की ओर चल पड़े ।

♦ राजा की लड़की ने कहा - "पिता जी ! मैं जवान हो गयी हूँ । आप आँखें बन्द किए बैठे हैं, मेरी शादी नहीं कर रहे थे और आज रात मैंने आपके महावत के साथ भागकर अपना जीवन बर्बाद कर लेना था । लेकिन इस नर्तकी ने मुझे सुमति दी है कि जल्दबाजी मत कर कभी तो तेरी शादी होगी ही । क्यों अपने पिता को कलंकित करने पर तुली है ?"

♦ युवराज ने कहा - "पिता जी ! आप वृद्ध हो चले हैं, फिर भी मुझे राज नहीं दे रहे थे । मैंने आज रात ही आपके सिपाहियों से मिलकर आपका कत्ल करवा देना था । लेकिन इस नर्तकी ने समझाया कि पगले ! आज नहीं तो कल आखिर राज तो तुम्हें ही मिलना है, क्यों अपने पिता के खून का कलंक अपने सिर पर लेता है । धैर्य रख ।"

♦ जब ये सब बातें राजा ने सुनी तो राजा को भी आत्म ज्ञान हो गया । राजा के मन में वैराग्य आ गया । राजा ने तुरन्त फैंसला लिया - "क्यों न मैं अभी युवराज का राजतिलक कर दूँ ।" फिर क्या था, उसी समय राजा ने युवराज का राजतिलक किया और अपनी पुत्री को कहा - "पुत्री ! दरबार में एक से एक राजकुमार आये हुए हैं । तुम अपनी इच्छा से किसी भी राजकुमार के गले में वरमाला डालकर पति रुप में चुन सकती हो ।" राजकुमारी ने ऐसा ही किया और राजा सब त्याग कर जंगल में गुरु की शरण में चला गया ।

♦ यह सब देखकर नर्तकी ने सोचा - "मेरे एक दोहे से इतने लोग सुधर गए, लेकिन मैं क्यूँ नहीं सुधर पायी ?" उसी समय नर्तकी में भी वैराग्य आ गया । उसने उसी समय निर्णय लिया कि आज से मैं अपना बुरा धंधा बन्द करती हूँ और कहा कि "हे प्रभु ! मेरे पापों से मुझे क्षमा करना । बस, आज से मैं सिर्फ तेरा नाम सुमिरन करुँगी ।"

*समझ आने की बात है, दुनिया बदलते देर नहीं लगती । एक दोहे की दो लाईनों से भी हृदय परिवर्तन हो सकता है । बस, केवल थोड़ा धैर्य रखकर चिन्तन करने की आवश्यकता है ।*

*⛳ प्रशंसा से पिंघलना मत, आलोचना से उबलना मत, नि:स्वार्थ भाव से कर्म करते रहो, क्योंकि इस धरा का, इस धरा पर, सब धरा रह जाएगा⛳*

सामना

*महाभारत में कर्ण ने श्री कृष्ण से पूछा "मेरी माँ ने मुझे जन्मते ही त्याग दिया, क्या ये मेरा अपराध था कि मेरा जन्म एक अवैध बच्चे के रूप में हुआ*

दोर्णाचार्य ने मुझे शिक्षा देने से मना कर दिया क्योंकि वो मुझे क्षत्रीय नही मानते थे, क्या ये मेरा कसूर था

परशुराम जी ने मुझे शिक्षा दी साथ ये शाप भी दिया कि मैं अपनी विद्या भूल जाऊंगा क्योंकि वो मुझे क्षत्रीय समझते थे

भूलवश एक गौ मेरे तीर के रास्ते मे आकर मर गयी और मुझे गौ वध का शाप मिला

द्रौपदी के स्वयंवर में मुझे अपमानित किया गया, क्योंकि मुझे किसी राजघराने का कुलीन व्यक्ति नही समझा गया

यहां तक कि मेरी माता कुंती ने भी मुझे अपना पुत्र होने का सच अपने दूसरे पुत्रों की रक्षा के लिए स्वीकारा

मुझे जो कुछ मिला दुर्योधन की दया स्वरूप मिला

*तो क्या ये गलत है कि मैं दुर्योधन के प्रति अपनी वफादारी रखता हूँ..*

*श्री कृष्ण मंद मंद मुस्कुराते हुए बोले-*
"कर्ण, मेरा जन्म जेल में हुआ था मेरे पैदा होने से पहले मेरी मृत्यु मेरा इंतज़ार कर रही थी जिस रात मेरा जन्म हुआ उसी रात मुझे मेरे माता-पिता से अलग होना पड़ा तुम्हारा बचपन रथों की धमक, घोड़ों की हिनहिनाहट और तीर कमानों के साये में गुज़रा
मैने गायों को चराया और गोबर को उठाया
जब मैं चल भी नही पाता था तो मेरे ऊपर प्राणघातक हमले हुए
कोई सेना नही, कोई शिक्षा नही, कोई गुरुकुल नही, कोई महल नही, मेरे मामा ने मुझे अपना सब से बड़ा शत्रु समझा
जब तुम सब अपनी वीरता के लिए अपने गुरु व समाज से प्रशंसा पाते थे उस समय मेरे पास शिक्षा भी नही थी बड़े होने पर मुझे ऋषि सांदीपनि के आश्रम में जाने का अवसर मिला

तुम्हे अपनी पसंद की लड़की से विवाह का अवसर मिला मुझे तो वो भी नही मिली जो मेरी आत्मा में बसती थी
मुझे बहुत से विवाह राजनैतिक कारणों से या उन स्त्रियों से करने पड़े जिन्हें मैंने राक्षसों से छुड़ाया था
जरासंध के प्रकोप के कारण मुझे अपने परिवार को यमुना से ले जाकर सुदूर प्रान्त मे समुद्र के किनारे बसाना पड़ा दुनिया ने मुझे कायर कहा

यदि दुर्योधन युद्ध जीत जाता तो विजय का श्रेय तुम्हे भी मिलता, लेकिन धर्मराज के युद्ध जीतने का श्रेय अर्जुन को मिला मुझे कौरवों ने अपनी हार का उत्तरदायी समझ

*हे कर्ण* किसी का भी जीवन चुनोतियों से रहित नही है सब के जीवन मे सब कुछ ठीक नही होता कुछ कमियां अगर दुर्योधन में थी तो कुछ युधिष्टर में भी थीं
सत्य क्या है और उचित क्या है? ये हम अपनी आत्मा की आवाज़ से स्वयं निर्धारित करते हैं

इस बात से *कोई फर्क नही पड़ता* कितनी बार हमारे साथ अन्याय होता है,

इस बात से *कोई फर्क नही पड़ता* कितनी बार हमारा अपमान होता है,

इस बात से *कोई फर्क नही पड़ता* कितनी बार हमारे अधिकारों का हनन होता है

*फ़र्क़ सिर्फ इस बात से पड़ता है कि हम उन सबका सामना किस प्रकार करते हैं..*

देवउठनी ग्यारस की कथा:-

देवउठनी ग्यारस की कथा:-प्रवाचक: विष्णु नागर

एक राजा था। उसके राज्य में प्रजा सुखी थी। एकादशी को कोई भी अन्न नहीं बेचता था। सभी फलाहार करते थे। एक बार भगवान ने राजा की परीक्षा लेनी चाही। भगवान ने एक सुंदरी का रूप धारण किया तथा सड़क पर बैठ गए। तभी राजा उधर से निकला और सुंदरी को देख चकित रह गया। उसने पूछा- हे सुंदरी! तुम कौन हो और इस तरह यहां क्यों बैठी हो?
तब सुंदर स्त्री बने भगवान बोले- मैं निराश्रिता हूं। नगर में मेरा कोई जाना-पहचाना नहीं है, किससे सहायता मांगू? राजा उसके रूप पर मोहित हो गया था। वह बोला- तुम मेरे महल में चलकर मेरी रानी बनकर रहो।
सुंदरी बोली- मैं तुम्हारी बात मानूंगी, पर तुम्हें राज्य का अधिकार मुझे सौंपना होगा। राज्य पर मेरा पूर्ण अधिकार होगा। मैं जो भी बनाऊंगी, तुम्हें खाना होगा।
राजा उसके रूप पर मोहित था, अतः उसने उसकी सभी शर्तें स्वीकार कर लीं। अगले दिन एकादशी थी। रानी ने हुक्म दिया कि बाजारों में अन्य दिनों की तरह अन्न बेचा जाए। उसने घर में मांस-मछली आदि पकवाए तथा परोसकर राजा से खाने के लिए कहा। यह देखकर राजा बोला-रानी! आज एकादशी है। मैं तो केवल फलाहार ही करूंगा। 
तब रानी ने शर्त की याद दिलाई और बोली- या तो खाना खाओ, नहीं तो मैं बड़े राजकुमार का सिर काट लूंगी। राजा ने अपनी स्थिति बड़ी रानी से कही तो बड़ी रानी बोली- महाराज! धर्म न छोड़ें, बड़े राजकुमार का सिर दे दें। पुत्र तो फिर मिल जाएगा, पर धर्म नहीं मिलेगा।
इसी दौरान बड़ा राजकुमार खेलकर आ गया। मां की आंखों में आंसू देखकर वह रोने का कारण पूछने लगा तो मां ने उसे सारी वस्तुस्थिति बता दी। तब वह बोला- मैं सिर देने के लिए तैयार हूं। पिताजी के धर्म की रक्षा होगी, जरूर होगी।
राजा दुःखी मन से राजकुमार का सिर देने को तैयार हुआ तो रानी के रूप से भगवान विष्णु ने प्रकट होकर असली बात बताई- राजन! तुम इस कठिन परीक्षा में पास हुए। 
भगवान ने प्रसन्न मन से राजा से वर मांगने को कहा तो राजा बोला- आपका दिया सब कुछ है। हमारा उद्धार करें। उसी समय वहां एक विमान उतरा। राजा ने अपना राज्य पुत्र को सौंप दिया और विमान में बैठकर परम धाम को चला गया ।
देवउठनी एकादशी की एक अन्य कथा शंखासुर नामक राक्षस की है। शंखासुर ने तीनों लोकों में बहुत ही उत्पात मचाया हुआ था। तब सभी देवताओं के आग्रह करने पर भगवान  विष्णु ने उस राक्षस से युद्ध किया और यह युद्ध कई वर्षों तक चला। 
युद्ध में वह असुर मारा गया और इसके बाद भगवान विष्णु विश्राम करने चले गए। कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन भगवान विष्णु की निद्रा टूटी थी और सभी देवताओं ने भगवान  विष्णु की पूजा की थी।
आपको देवउठनी एकादशी(छोटी दिपावली)की ढेरो शुभकामनायें ।।
शुभ प्रभातम् सा!

Tuesday, 12 September 2017

मांगी हुई खुशियों से

*मांगी हुई खुशियों से, किसका भला होता है,*
*किस्मत में जो लिखा होता है, उतना ही अदा होता है,*

*न डर रे मन दुनिया से,*

*यहाँ किसी के चाहने से, न हीं किसी का बुरा होता है,*
*मिलता है वही, जो हमने बोया होता है,*
*कर पुकार उस प्रभु के आगे,क्योंकि,  सब कुछ उसी के बस में होता है*

तुमको मिल्यो बरसाने का वास

बरसाने मे एक सेठ रहते थे।
उनके तीन चार दुकानें थी।
अच्छी तरह चलती थी। तीन बेटे तीन बहुएं थी, सब आज्ञाकारी। पर सेठ के मन मे एक इच्छा थी। उनके बेटी नहीं थी। संतो के दर्शन से चिन्ता कम हुई। संत बोले *मन में अभाव हो, उस पर भगवान का भाव स्थापित कर लो।*

सुनो सेठ !
तुमको मिल्यो बरसाने का वास

*यदि मानो नाते राधे सुता,*
                *काहे रहत उदास।*

सेठजी ने राधा रानी का एक चित्र मंगवाया और अपने कमरे में लगाकर पुत्री भाव से रहते। रोज सुबह राधे राधे कहते, भोग लगाते और दुकान से लौटकर राधे राधे  कहकर सोते।

तीन बहु बेटे हैं घर में,
             सुख सुविधा है पूरी।
संपति भरि भवन रहती,
             नहीं कोई मजबूरी॥

कृष्ण कृपासे जीवनपथ पे,
             आती न कोई बाधा।
मैं बहुत बड़भागी पिता हुं,
             मेरी बेटी है राधा॥

एक दिन एक मनिहारी चूड़ी पहनाने सेठ के दरवाजे के पास आ गयी। चूड़ी पहनाने की गुहार लगाई। तीनो बहुऐं बारी बारी से चूड़ी पहन कर चली गयी। फिर एक हाथ और बढ़ा तो मनिहारीन सोची कि कोई रिश्तेदार  आया होगा उसने चूड़ी पहनायी और चली गयी।
   
सेठ की दुकान पर पहुँच कर पैसे मांगे और कहा कि  इस बार पैसे पहले से ज्यादा चाहिए। सेठजी बोले कि क्या चूड़ी मंहगी हो गयी है। तो मनिहारीन  बोली - नहीं सेठजी ! आज मैं चार लोगो को चूड़ी पहना कर आ रही हूं। सेठजी ने कहा कि तीन बहुओं के अलावा चौथा कौन है ? झूठ मत बोल यह ले तीन का पैसा। मैं घर पर पूछूँगा, तब एक का पैसा दूँगा। अच्छा ! मनिहारीन तीन का पैसा ले कर चली गयी।

सेठजी ने घर पर पूछा कि चौथा कौन था जो चूड़ी पहना है। बहुऐं बोली कि हम तीन के अलावा तो  कोई भी नहीं था। रात को सोने से पहले पुत्री राधारानी को स्मरण करके सो गये। नींद मे राधाजी प्रगट हुईं।
सेठजी बोले "बेटी बहुत उदास हो, क्या बात है?"

बृषभानु दुलारी बोली,

"तनया बनायो तात, नात ना निभायो।
मैं जानि पितु गेह, चूड़ी पहनि लिनी॥
आप मनिहारीन को मोल ना चुकायो।
तीन बहु याद, किन्तु बेटी को बिसरायो॥

कहत श्रीराधिका को नीर भरि आयो है!

कैसी भई दूरी, कहो कौन मजबूरी हाय,
आज चार चूड़ी काज मोहि बिसरायो है।

सेठजी की नींद टूट गयी,
             पर नीर नहीं टूटी, रोते रहे।
सुबेरा हुआ, स्नान ध्यान करके मनिहारीन के घर सुबह सुबह पहुँच गये। मनिहारीन देखकर चकित हुई। सेठजी आंखों मे आंसू लिये बोले

धन धन भाग तेरो मनिहारीन,
तोरे से बड़भागी नहीं कोई संत महंत पुजारी।
धन धन भाग तेरो मनिहारीन॥

मनिहारीन बोली क्या हुआ ? सेठजी आगे बोले

"मैने मानी सुता किन्तु,
                निज नैनन नहीं निहारी,

चूड़ी पहनगयी तव कर
                ते श्री बृषभानु दुलारी।

धन धन भाग तेरो मनिहारीन

बेटी की चूड़ी पहिराई,
लेहु जाहू तौ बलिहारी

जुगल नयन जलते भरि,
मुख ते कहे न बोल।

मनिहारीन के पांय पड़ि,
लगे चुकावन मोल।"

मनिहारीन सोची

जब तोहि मिलो अमोल धन,
अब काहे मांगत मोल।

ऐ मन मेरो प्रेम से श्रीराधे राधे बोल,
श्रीराधे राधे बोल, श्रीराधे राधे बोल॥

सेठ जी का जीवन धन्य हो गया।

Saturday, 26 August 2017

हमारी "समस्या"

नीदरलैण्ड विश्व का सर्वाधिक नास्तिक देश है!!!
अपराध दर इतनी कम, के जेलखाने तक बन्द करने पडे!!!
100% शिक्षित लोग!!!
रहन सहन का अत्यधिक उच्च स्तर!!!

और एक हमारा देश है@
रोजाना लोग हरा,भगवा, लाल, पीला,नीला,काला झण्डे लेके घूमते है फिर भी
भयंकर गरीबी, बढती बेरोजगार, हत्या, बलात्कार, भेदभाव, जातीय हिंसा, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, गरीबो का शोषण,
हमारा यहाँ आम बात है।

*समाज" के "अनपढ़" लोग  हमारी "समस्या" नहीं है ।*

*"समाज" के "पढे़ लिखे" लोग "गलत" बात का "समर्थन" करने के लिए अपनी "बुध्दि" का उपयोग करते हैं ।*

*ये हमारी "समस्या" है ।*
*कडवा है पर सत्य है.l*

Sunday, 20 August 2017

चिंता ऐसी डाकिनी

चिंता ऐसी डाकिनी, काट कलेजा खाए ।
वैद बेचारा क्या करे, कहा तक दवा लगाए ॥

अर्थ : चिंता एक ऐसी चोर है जो सेहत चुरा लेती है। चिंता और व्याकुलता से पीड़ित व्यक्ति का कोई इलाज नहीं कर सकता।